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________________ अनुवाद-जी-१ 297 करना। संखडि की कांक्षा का अन्यापदेश-अन्योक्ति से अपनयन करना। (यह दोष-निर्घातन विनय का तीसरा भेद है।) 239. चरक आदि में अहिंसा कही गई है, शिष्य की ऐसी कांक्षा होने पर हेतु और कारण से उसका विनयन करना, जिससे वह कांक्षारहित हो जाए। 240. जो क्रोध, द्वेष और कांक्षा में वर्तमान नहीं है, वह सुप्रणिहित अथवा श्रेष्ठ परिणाम से युक्त होता है। 241. ये छत्तीस स्थान क्रमशः कहे गए हैं। जो इन स्थानों के प्रति कुशल है, वह व्यवहारी व्यवहार करने के योग्य कहा गया है। 242, 243. जो आचारवान् आदि आठ स्थानों, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों, दश प्रायश्चित्त, दश आलोचना के दोष', छह स्थान–छह काय, छह व्रत आदि, दश आलोचना के गुण, षट्स्थान पतित स्थान, पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा पांच प्रकार के चारित्र में प्रत्यक्षज्ञानी होता है, वह आगमव्यवहारी होता है। 1. आलोचनार्ह आचारवान् आदि आठ गुणों से युक्त होता है, वे इस प्रकार हैं 1. आचारवान्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों से युक्त। 2. आधारवान्-आलोचक द्वारा आलोच्यमान सभी अतिचारों को धारण करने में समर्थ। 3. व्यवहारवान्-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहारों का सम्यक प्रयोक्ता। 4. अपव्रीडक-मधुर वचनों से आलोचक में अतिचारों को कहने का साहस उत्पन्न करने में समर्थ, जिससे आलोचना करते समय वह उसके समक्ष लज्जा का अनुभव न करे। 5. प्रकुर्वी -सम्यक् प्रायश्चित्त देकर विशोधि करने वाला। 6. अपरिस्रावी-आलोचक के द्वारा प्रकट किए गए दोषों को दूसरे के सामने प्रकट नहीं करने वाला। व्यवहारभाष्य में पिछले तीनों गुणों में क्रमव्यत्यय है। 7. निर्यापक-आलोचक बड़े प्रायश्चित्त का भी वहन कर सके, इस प्रकार सहयोग देने वाला। 8. अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने पर उत्पन्न दोषों को बताने वाला। १.स्था 8/18, 2. व्यभा 520 / 2. देखें जीभा गा. 154 का अनुवाद। 3. आलोचना के दश दोष इस प्रकार हैं 1. आकम्प्य-सेवा आदि से आकृष्ट करके आलोचना करना। 2. अनुमान्य –'मैं कमजोर हूं' अत: मुझे कम प्रायश्चित्त देना, इस प्रकार अनुनय करके आलोचना करना। 3. यदृष्ट-आचार्य आदि के द्वारा जो दोष देखा गया है, केवल उसी की आलोचना करना, शेष को छुपा लेना। . 4. बादर-केवल बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करना। 5. सूक्ष्म-केवल छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना। . 6. छन्न-आचार्य पूरा सुन न पाए, वैसे आलोचना करना। 7. शब्दाकुल-दूसरे अगीतार्थ मुनि भी सुने, ऐसे जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना। 8. बहुजन -एक के पास आलोचना करके फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना। 9. अव्यक्त-अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना। 10. तत्सेवी-आलोचना देने वाले स्वयं जिन दोषों का सेवन करते हैं, उनके पास दोषों की आलोचना करना। १.स्था 10/70, व्यभा 523 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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