________________ 298 जीतकल्प सभाष्य 244, 245. जो आचारवान् आदि आठ स्थानों, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों, आलोचना आदि दश प्रकार के प्रायश्चित्त (गा. 274), आकम्प्य आदि आलोचना के दश दोष, व्रतषट्क, कायषट्क, आलोचना के दश गुणों (गा. 246) तथा षट्स्थान पतित के छहों स्थानों के प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं, वे आगम व्यवहारी कहलाते हैं। 246. आचार, विनयगुण, कल्पदीपना', आत्मशोधि, ऋजुभाव, आर्जव, मार्दव, लाघव, तुष्टि और प्रह्लादकरण-ये आलोचना के दश गुण हैं। 247. मिथ्यात्व आदि पांच आश्रव को दूर करके तप आदि आचार में स्थित होना आलोचना का प्रथम गुण है। विनय का अर्थ है-विनाश। माया का विनाश करना विनय गुण है। 248. आलोचना करने से चारित्र के कल्प तथा नियमों में निरतिचार प्रवृत्ति होती है। दीपित, प्रभासित और प्रकाशित –ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। 249. अतिचार पंक से पंकिल आत्मा की विशोधि करना आत्मशोधि है। आलोचना करने पर आत्मा ऋजुभाव में स्थित होती है। 250. ऋजुभाव में रहकर सरल मुनि स्वयं ही अतिचारों की आलोचना करता है। मार्दवभाव से अभिमान रहित होकर आलोचना होती है। 251. अतिचार की गुरुता (भारीपन) के भय से आक्रान्त मुनि आलोचना करके लघु हो जाता है। मैं शुद्ध हो गया हूं' ऐसा सोचकर वह तुष्टि-तोष का अनुभव करता है तथा अतिचार के नष्ट होने पर वह प्रह्लाद का अनुभव करता है। 252. आलोचना के गुणों से सम्पन्न छहों प्रत्यक्षव्यवहारी षट्स्थानपतित होते हैं। 253. षट्स्थानपतित' के असंख्यात स्थान होते हैं। जो सराग संयमी हैं, उनमें ये स्थान पाए जाते हैं। वीतराग संयमी में एक ही स्थान पाया जाता है। 254. जो जिनदेव की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं, वे आगम व्यवहारी राग-द्वेष से रहित होते हैं। 255. ऐसा कहने पर शिष्य जिज्ञासा करता है कि आगम व्यवहारी वर्तमान में यहां (भरतक्षेत्र में) व्युच्छिन्न हैं अतः उनका विच्छेद होने से चारित्र की विशुद्धि नहीं होगी। 256. केवली का व्यवच्छेद होने पर (कुछ समय बाद) चतुर्दश पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो गया। कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि उनका व्यवच्छेद होने पर प्रायश्चित्त भी व्युच्छिन्न हो गया। 1. भगवती आराधना में आयारजीदकप्प गुणदीवणा ' पाठ मिलता है। वहां विजयोदया टीका में आचार, जीत और कल्प-इन तीनों को ग्रंथ रूप में व्याख्यायित किया है लेकिन मूलाचार (387) में टीकाकार ने भिन्न व्याख्या की है। 2. षट्स्थानपतित संयम-स्थान का परिमाण असंख्येय लोकाकाश के प्रदेश के परिमाण जितना होता है। सराग संयत वीतराग के कभी संयमस्थान बढ़ते हैं, कभी घटते हैं लेकिन वीतराग संयत के चारित्र का एक ही स्थान अर्थात् समान चारित्र होता है। कषाय के अभाव में उनके संयम-स्थान न घटते हैं और न बढ़ते हैं, अवस्थित रहते हैं।