SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुवाद-जी-१ 299 257. जितने प्रायश्चित्त से जिसका पाप शुद्ध होता है, उसको जिनेश्वर भगवान् तथा चतुर्दश पूर्वधर उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। इसके विपरीत जो आगम व्यवहारी नहीं हैं, वे अपनी इच्छा के अनुसार प्रायश्चित्त देते हैं। 258. प्रत्यक्षज्ञानी-आगमव्यवहारी यह जानते हैं कि यह मुनि प्रायश्चित्त को वहन करने में समर्थ होगा या असमर्थ। जिसके लिए जितना प्रायश्चित्त करणीय है, उसको जानकर वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। परोक्ष व्यवहारी घुणाक्षर न्याय से प्रायश्चित्त देते हैं। 259. न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देने से मोक्षमार्ग की विराधना होती है, ऐसा सूत्र में प्रतिपादित है। प्रायश्चित्त देने पर भी उसकी शुद्धि नहीं होती। जो स्वयं अशुद्ध है, वह दूसरों को कैसे शुद्ध कर सकता है? 260. वर्तमान में मासिक और चातुर्मासिक प्रायश्चित्त देने वाले भी दिखाई नहीं देते और न ही प्रायश्चित्त के द्वारा शोधि करने वाले देखे जाते हैं। 261. शोधि के अभाव में प्रायश्चित्त देने वाले और प्रायश्चित्त करने वाले के अभाव में वर्तमान में तीर्थ सम्यक्त्व (दर्शन) और ज्ञान वाला ही है (अर्थात् चारित्र का अभाव है)। 262. महापुरुषों (प्रत्यक्ष व्यवहारी) का व्यवच्छेद होने पर वर्तमान में निर्यापक भी नहीं हैं इसलिए वर्तमान में सुविहित मुनियों की विशुद्धि संभव नहीं है। 263. शिष्य के द्वारा इस प्रकार जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर आचार्य उसको कहते हैं कि तुम यह नहीं जानते कि प्रायश्चित्त कहां (किस ग्रंथ में) कहा गया है और वह कितना व्युच्छिन्न हो गया है? 264. अर्थ की अपेक्षा से कुछ सूत्र अनागत होते हैं। (अर्थात् उन सूत्रों का अर्थ ज्ञातव्य नहीं होता) कुछ सूत्र अर्थ का पूरा स्पर्श करते हैं। कुछ अर्थ भी अनागत सूत्र का स्पर्श करते हैं। (चतुर्दश पूर्वधर इसके पूर्ण ज्ञाता होते हैं।) 265. सारा प्रायश्चित्त नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में निबद्ध है। प्रकल्प-निशीथ, कल्प और व्यवहार उसी पूर्व से निमूढ़ हैं। 266. उन ग्रंथों (निशीथ, व्यवहार और कल्प) को धारण करने वाले मुनि आज भी हैं। तुम यह कैसे कह सकते हो कि प्रायश्चित्त का विच्छेद हो गया? यहां यह प्ररूपणा ज्ञातव्य है। 267. स्वपदप्ररूपणा, दश प्रायश्चित्त चौदहपूर्वी तक, आठ प्रायश्चित्त दुःप्रसभ आचार्य तक, प्रायश्चित्त हैं, प्रायश्चित्त देने वाले नहीं देखे जाते, धनिक का दृष्टांत, तीर्थ और निर्यापक' / 268. प्रज्ञापक का स्वपद है-प्रायश्चित्त। उसकी व्याख्या चोदक को अभीष्ट नहीं है। वर्तमान में वह जिस रूप में विद्यमान है, उस रूप में मुझसे सुनो। 269. चक्रवर्ती शिल्पी रत्न द्वारा निर्मित प्रासाद में भोगों को भोगता है। उसको देखकर अन्य राजाओं के मन में भी वैसे प्रासाद में रहने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। 270, 271. हम भी ऐसे ही प्रासाद करवाएंगे, ऐसा सोचकर उन्होंने चित्रकारों को संदेश भेजा कि अच्छी 1. यह द्वारगाथा है, इसके द्वारों की व्याख्या आगे अनेक गाथाओं में की गई है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy