________________ 300 जीतकल्प सभाष्य तरह फलक पर प्रासाद को चित्रित करके लाओ। चित्रकार मनोहारी प्रासाद को फलक पर चित्रित करके लाए। वैसा ही प्रासाद वर्धकि ने बनाया। उस प्रासाद का आकार चक्रवर्ती के प्रासाद जैसा होने पर भी वह लीलाविहीन होता है। 272. जैसे सामान्य लोगों के प्रासाद आकार और रूप आदि में विशिष्ट नहीं होते लेकिन क्या वे घर नहीं / कहलाते? उसमें भी वे लोग भोगों को भोगते हैं। 273. इसी प्रकार परोक्षव्यवहारी आचार्य प्रत्यक्षव्यवहारी के अनुरूप व्यवहार का प्रयोग करता है। व्यवहर्तव्य क्या है? दश प्रकार के प्रायश्चित्त व्यवहर्तव्य हैं। 274. 1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. मिश्र-आलोचना प्रतिक्रमण दोनों 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पारांचित -ये दस प्रायश्चित्त हैं। 275. इसके बाद अनुक्रम से इन प्रायश्चित्तों को जैसे और जहां धारण करता है, उसको विस्तारपूर्वक यथानुपूर्वी कहा जाएगा। 276. जब तक चतुर्दशपूर्वी और प्रथम संहनन का अस्तित्व रहता है, तब तक दश प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होता है। उसके बाद दुःप्रसभआचार्य तक तीर्थ में आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का प्रयोग होगा। 277. चतुर्दशपूर्वी तथा प्रथम संहनन --इन दोनों के विच्छेद होने पर नवां-अनवस्थाप्य और दशवां पारांचित –ये दोनों प्रायश्चित्त विच्छिन्न हो गए। 278. जब तक नवपूर्वी, दशपूर्वी, लिंगधारी साधु और तीर्थ रहेगा, तब तक आठ प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होगा, शिष्य प्रश्न करता है कि आज यह भी दिखाई नहीं देता, ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं२७९. दो प्रकार के प्रायश्चित्तों (नवमां, दसवां) का विच्छेद होने पर आठ प्रायश्चित्तों को देने वाले और पालन करने वाले दिखाई नहीं देते, इस प्रकार कहने वाले को चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। 280. दो प्रकार के प्रायश्चित्तों का विच्छेद होने पर आठ प्रायश्चित्तों को देने वाले और पालन करने वाले प्रत्यक्ष कैसे दिखाई देते हैं, उसे मुझसे सुनो। 281. पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ हैं -पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। इनके प्रायश्चित्तों का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 282. पुलाक निर्ग्रन्थ के छह प्रायश्चित्त ज्ञातव्य हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग और तप। 1. दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर दशविध प्रायश्चित्तों की कल्पना की गई है। यद्यपि प्रायश्चित्त-स्थान और भी हो सकते हैं लेकिन यहां पिण्डरूप में सबका समाहार दश प्रायश्चित्तों में हुआ है। आचार्य अकलंक के अनुसार असंख्य लोक जितने जीव के परिणाम हैं। परिणाम के अनुसार अपराध होते हैं। जितने अपराध होते हैं, उनके उतने ही प्रायश्चित्त होने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता। व्यवहार नय की दृष्टि से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं। तत्त्वार्थसूत्र में प्रायश्चित्त के नौ प्रकार हैं। वहां नवां भेद उपस्थापना है, दशवें पारांचित प्रायश्चित्त का वहां उल्लेख नहीं है। 1. तवा 9/22 पृ. 622 / 2. दुःप्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का विच्छेद हो जाएगा।