________________ अनुवाद-जी-१ 301 283. बकुश और प्रतिसेवना कुशील के सभी (दश) प्रायश्चित्त होते हैं। उनके स्थविर जो जिनकल्प' कल्प में स्थित हैं, उनके आठ प्रायश्चित्त होते हैं। 284. निर्ग्रन्थ के दो प्रायश्चित्त होते हैं -आलोचना और विवेक। स्नातक निर्ग्रन्थ के केवल एक विवेक प्रायश्चित्त होता है। ये पुलाक आदि निर्ग्रन्थों की प्रतिपत्तियां हैं। 285. ज्ञातपुत्र जिनेश्वर महावीर ने सामायिक संयत आदि पांच प्रकार के संयत बताए हैं। अब मैं सामायिक संयत के प्रायश्चित्तों को कहूंगा। 286. स्थविरकल्पी सामायिक संयतों के छेद और मूल को छोड़कर आठ प्रायश्चित्त होते हैं। जिनकल्पिक सामायिक संयतों के तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त होते हैं। 287. छेदोपस्थापनीय स्थविरकल्पी मुनियों के सभी प्रायश्चित्त होते हैं। छेदोपस्थापनीय जिनकल्पिक के मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्त होते हैं। 288. परिहारविशुद्धि चारित्र में वर्तमान स्थविरों के मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिक परिहारविशुद्धि के तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त होते हैं। 289. सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यात चारित्र में आलोचना और विवेक-ये दो ही प्रायश्चित्त होते हैं, तीसरा नहीं होता। 290. बकुश और प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ तथा सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत-ये चारों तीर्थ पर्यन्त विद्यमान रहते हैं इसलिए वर्तमान में भी प्रायश्चित्त हैं। 291. (शिष्य पूछता है-) यदि प्रायश्चित्त हैं तो उन्हें करने वाले कोई दिखाई नहीं देते। (आचार्य उत्तर देते हैं-) आचार्य उपाय से प्रायश्चित्त देते हैं, इस संदर्भ में तुम यह उदाहरण सुनो। - 292. जैसे धनिक दो प्रकार के होते हैं -सापेक्ष और निरपेक्ष, वैसे ही धारणक भी दो प्रकार के होते हैं. 1. वैभवयुक्त और 2. वैभवरहित। 293. जो वैभवयुक्त धारणक होता है, उससे जब भी धन मांगा जाता है, वह उसी समय सारा ऋण चुका देता है। जो वैभव रहित होता है, उसके लिए यह विशेष विधि है। 294. निरपेक्ष धनिक तीनों की हानि कर देता है-१. स्वयं की 2. धन की तथा 3. धारणक की। सापेक्ष धनिक तीनों की रक्षा करता है-१. स्वयं की 2. धन की 3. तथा धारणक की। 295. निरपेक्ष धनिक के पास जब वैभव रहित धारणक तृण लेकर आता है तो वह उसके पैरों को पकड़कर 1. जिनकल्प के साथ यहां उपलक्षण से यथालंद कल्प का भी ग्रहण है। १.व्यभा 4186 मटी प. 49 / 2. जो पापयुक्त बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथ से मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। आभ्यन्तर ग्रंथ से सर्वथा मुक्त न होने पर भी जो अपने क्रोध आदि दोषों को जानता है तथा उस पर विजय पाने का प्रयत्न करता है, वह भी निर्ग्रन्थ है। १.बृभा 832; सावजेण विमुक्का, सब्जिंतर-बाहिरेण गंथेण। निग्गहपरमा य विदू, तेणेव य होंति निग्गंथा। २.बृभा 836 /