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________________ 302 जीतकल्प सभाष्य अपने पैरों से मिलाकर उसे नीचे गिरा देता है। वह धनिक स्वयं धन तथा धारणक-तीनों की हानि कर देता है। 296. जो धनिक ऋणधारक से ऋणप्राप्ति के काल को सहन करता है अर्थात् कुछ समय प्रतीक्षा करता है, वह समय पर अर्थ को प्राप्त कर लेता है। वह धारणक की रक्षा भी कर लेता है तथा स्वयं भी क्लेश का अनुभव नहीं करता इसलिए यह उपाय सर्वत्र करना चाहिए। 297, 298. जो वैभव रहित व्यक्ति आधे ब्याज' में ऋण को धारण करता है, वह उसके घर में काम करते हुए, कार्षापण का निवेश करते हुए अल्पकाल में ही उस ऋण से मुक्त हो जाता है। यह दृष्टान्त कहा गया है, इसका उपनय इस प्रकार है२९९. जो धृति और संहनन से युक्त हैं, वे वैभवयुक्त व्यक्ति के समान हैं। वे धीर पुरुष प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को अनुग्रह रहित होकर वहन करते हैं। 300. जो मुनि धृति और संहनन से हीन हैं, वे वैभव रहित व्यक्ति के समान हैं। यदि निरपेक्ष होकर उनको कोई प्रायश्चित्त देता है तो वे शुद्ध नहीं हो सकते। 301. वे प्रायश्चित्त से विमुख होकर साधु-वेश को छोड़कर चले जाते हैं। एक-एक के जाने से तीर्थ का विच्छेद हो जाता है और स्वयं आचार्य भी त्यक्त हो जाते हैं। 302. शिष्य विमुख होकर पलायन कर जाते हैं। प्रायश्चित्तदाता पीछे अकेला रह जाता है, इस प्रकार स्वयं परित्यक्त होकर वह अकेला क्या करेगा? 303. जो आचार्य प्रवचन के प्रति सापेक्ष होता है, वह अनवस्था दोष के निवारण में कुशल होता है, वह चारित्र की रक्षा एवं तीर्थ की अविच्छिन्न परम्परा चलाकर उसे शुद्ध बनाए रखने में समर्थ होता है। 304,305. जिस मुनि को अपराध के प्रायश्चित्त स्वरूप पंच कल्याणक (पांच उपवास, पांच आयम्बिल, पांच एकाशन, पांच पुरिमार्ध तथा पांच निर्विकृतिक) प्राप्त हैं, वह यदि उनकी क्रमशः अनुपालना में समर्थ नहीं होता तो आचार्य उसके बदले में उससे दस उपवास करवाते हैं। यह भी करने में समर्थ नहीं हो तो दुगुने आचाम्ल अर्थात् बीस आयम्बिल करवाते हैं। इसके असामर्थ्य में दुगुने से दुगुना अर्थात् चालीस एकासन, उससे दुगुने अस्सी पुरिमार्ध तथा उससे दुगुने एक सौ साठ निर्विकृतिक करवाते हैं। जो पंच कल्याण (प्रायश्चित्त विशेष) के प्रायश्चित्त को क्रमश: करने में समर्थ नहीं होता, उससे उसके सदश दूसरा प्रायश्चित्त करवाते हैं। 306. जो पंच कल्याणक को यथाक्रम से करने में असमर्थ होता है, उसको चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक ही करवाते हैं, जो प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ होता है, उसे प्रायश्चित्त देते हैं, जो एक 1. व्यवहारभाष्य (4199) में 'वद्धतं' पाठ मिलता है। वहां टीकाकार ने 'सौ रूप्यक पर एक कार्षापण के ब्याज से उधार लेता है', ऐसी व्याख्या की है। 2. आचार्य मलयगिरि की व्याख्या के अनुसार सदृश प्रायश्चित्त का तात्पर्य यह है कि पांच कल्याणक प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता को आचार्य प्रथम, दूसरा और तीसरा कल्याणक क्रमश: करवाकर शेष कल्याणकों को विच्छिन्न क्रम से करवाते हैं। १.व्यभा 4206 मटी प.५१।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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