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________________ अनुवाद-जी-१ 303 कल्याणक को करने में भी समर्थ नहीं होता, उसका प्रायश्चित्त कम कर देते हैं।' 307. इस प्रकार प्रायश्चित्तदाता सदय होकर प्रायश्चित्त देता है, जिससे मुनि संयम में स्थिर रह सके। ऐसा नहीं हो सकता कि बिल्कुल प्रायश्चित्त न दे क्योंकि इससे अनवस्था दोष उत्पन्न होता है। 308. अनवस्था दोष के प्रसंग में तिलहारक चोर का दृष्टान्त है, जो प्रसंग-दोष के कारण वध को प्राप्त हो गया। दोष-प्रसंग का निवारण नहीं करने से माता का स्तनछेद किया गया। 309. चोरी करने पर दूसरे बालक की मां ने भर्त्सना की और उसे चोरी करने से निवारित किया। वह जीवित रहकर सुखों का उपभोक्ता बन गया। उसकी मां भी स्तनछेद आदि के दुःख को प्राप्त नहीं हुई। 310. दोषों का निवारण न करने पर जीव दु:ख-सागर को प्राप्त करते हैं और दोषों के प्रसंग का निवारण करने पर जीव भव-परम्परा का विच्छेद कर देते हैं। 311. इस प्रकार तीर्थ शोधि–प्रायश्चित्त को धारण करता है। तीर्थ में प्रायश्चित्त देने वाले और करने वाले भी देखे जाते हैं। जो कहा गया कि तीर्थ ज्ञान-दर्शन से ही सुशोभित है, इस विषय में सुनो। 312. इस प्रकार कहते हुए तुमने श्रेणिक आदि को भी श्रमण के रूप में स्थापित कर दिया। सूत्र में उल्लेख है कि श्रमण का नरक में उपपात नहीं होता। 313. सूत्रों में वर्णन मिलता है कि तीर्थ का अस्तित्व 21 हजार वर्षों तक होगा। तुम्हारे इस कथन से यह बात भी मिथ्या हो जाएगी। सभी गतियों में ज्ञान और दर्शन रहता है अतः सिद्धि भी सभी गतियों में प्राप्त हो / जाएगी। (अतः तीर्थ केवलज्ञान और दर्शन युक्त है, यह बात सिद्ध नहीं होती।) 314. प्रायश्चित्त के अभाव में यह दोष और पाया जाता है। जो कहते हैं कि चारित्र नहीं है, उनको यह गाथा कहनी चाहिए। १.व्यवहारभाष्य में भी यह गाथा प्राप्त होती है। वहां 'झोसेंति' के स्थान पर 'भासंति' पाठ मिलता है-इसकी : व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि ने अंत में एक विकल्प और प्रस्तुत किया है कि उलाहने के पश्चात आचार्य उसे एक आयम्बिल अथवा एक एकासन अथवा एक पुरिमार्ध अथवा एक निर्विगय का प्रायश्चित्त देते हैं। आचार्य यदि उसे प्रायश्चित्त न दें अथवा कुछ नहीं कहें तो दोषों की अनवस्था का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। १.व्यभा 4207,4208 मटी. प.५१।। २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१। ३.सम्यग्दर्शन और ज्ञान से युक्त तथा चारित्र से रहित जीव सभी गतियों में मिलते हैं। यदि ज्ञान और दर्शन को ही मुख्य मानेंगे तो टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि अनुत्तरौपपातिक देव नियमतः तद्भव सिद्धिगतिगामी हो जाएंगे क्योंकि उनके अनुत्तर ज्ञान और दर्शन होता है अत: यह स्पष्ट है कि जब तक चारित्र है, तब तक ही तीर्थ का अस्तित्व रहता है। 1. व्यभा 4214 मटी. प.५२। ४.निशीथभाष्य में उल्लेख मिलता है कि जो यह कहते हैं कि वर्तमान में चारित्र नहीं है, वे विद्यमान चारित्र-गुणों का नाश करते हैं / प्रवचन का परिभव करते हैं, असत्य बोलते हैं। इससे चारित्रधर्म की अवमानना होती है, साधुओं से प्रद्वेष होता है तथा संसार-जन्म-मरण की वृद्धि होती है। तीर्थंकर के समय में भी क्षायिक,क्षायोपशमिक तथा औपशमिक चारित्र होता था। क्षायोपशमिक चारित्र से ही क्षायिक और औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है। क्षायोपशमिक चारित्र के अनेक स्तर होते हैं। उसमें दोष लगाने वाले भी होते हैं पर प्रायश्चित्त से चारित्र की विशोधि होती है। 1. निभा 5429-31 चू पृ. 69,70 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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