________________ 304 जीतकल्प सभाष्य 315. प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र' का अस्तित्व भी नहीं रहता। चारित्र के अभाव में तीर्थ की सचारित्रता नहीं रहती। 316. तीर्थ में चारित्र के अभाव से साधु निर्वाण को प्राप्त नहीं करता। निर्वाण के अभाव में सारी दीक्षा निरर्थक हो जाती है। 317. निर्ग्रन्थों के बिना तीर्थ नहीं होता। तीर्थ के बिना निर्ग्रन्थ भी अतीर्थिक हो जाते हैं। जब तक षट्काय संयम है, तब तक तीर्थ और निर्ग्रन्थ की अनुवर्तना है। 318. सर्वज्ञों ने षट्काय-संयम, महाव्रत और समितियों की जैसी प्ररूपणा की, वैसी ही प्ररूपणा वर्तमान काल में भी साधुओं के लिए है। 319. इसीलिए यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान और दर्शन से ही तीर्थ चलता है। जो यह कहा गया कि निर्यापक विच्छिन्न हो गए, यह बात भी तथ्यपूर्ण नहीं है। 320. निर्यापक तथा निर्याप्यमान जिस रूप में रहते हैं, उसे तुम सुनो। निर्यापक दो प्रकार के होते हैं-१. आत्मनिर्यापक 2. परनिर्यापक। 321. प्रायोपगमन और इंगिनीमरण –इन दो अनशनों में आत्मनिर्यापक होते हैं। भक्तपरिज्ञा में परनिर्यापक होते हैं। 322. प्रायोपगमन और इंगिणी-इन दोनों मरणों का वर्णन अभी रहने दो। अब मैं यथाक्रम से भक्तपरिज्ञा की विधि कहूंगा। 323. प्रव्रज्या से लेकर जीवन के अंतिम समय तक पांच तुलाओं से अपनी आत्मा को तोलकर मुनि को भक्तपरिज्ञा अनशन के प्रति परिणत होना चाहिए। 324. भक्तपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-सपराक्रम और अपराक्रम। सपराक्रम के दो भेद हैं-१. व्याघातिम और निर्व्याघातिम। सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिपूर्वक मरण करना चाहिए। 1. निशीथ भाष्य में भी एक प्रश्न उठाया गया है कि अतिशयज्ञानी के अभाव में चारित्र की शुद्धि और अशुद्धि का ज्ञान कैसे संभव है? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य कहते हैं कि जैसे दूसरों के मुख की आकृति को देखकर सामान्यज्ञानी उसके अन्तर्भाव को जान लेता है, वैसे ही परोक्षज्ञानी आचार्य आलोचना को सुनते समय पूर्वापर सम्बद्धता तथा वाणी और आकार से चारित्र की शुद्धाशुद्धि को जान लेते हैं। परोक्षज्ञानी आगम के आधार पर चारित्रशुद्धि करते हैं। १.निभा 5433 चू पृ.७०। 2. टीका में 'पाओवगमण' की संस्कृत छाया पादोपगमन तथा पादपोपगमन मिलती है लेकिन आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार इसकी संस्कृत छाया प्रायोपगमन होनी चाहिए। प्रायः का अर्थ है मृत्यु तथा उपगमन का अर्थ है समीप जाना। 1. भभा 1, 2/49 पृ. 230 / 3. टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि प्रव्रज्या के पश्चात् साधु ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा, तत्पश्चात् महाव्रतों की साधना, तदनंतर सूत्र के अर्थ का ग्रहण, अनियतवास तथा गच्छ की निष्पत्ति करके फिर तप, सत्त्व आदि भावना से स्वयं को तोलकर भक्तपरिज्ञा अनशन से मृत्यु को प्राप्त करे। 1. व्यभा 4223 मटी प.५३।