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________________ अनुवाद-जी-१ 305 325. जो भिक्षा करने एवं विचारभूमि जाने में समर्थ होता है तथा अन्य गण में जाकर वाचना दे सकता है, उसके सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है, इसके विपरीत जो इन कार्यों को करने में समर्थ नहीं होता है. उसके अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है। 326. प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं -1. निर्व्याघात तथा 2. व्याघात / व्याघात के भी दो प्रकार हैं-काल को धारण करने वाला तथा काल को धारण नहीं करने वाला। 327. सपराक्रम के दो भेद हैं -निर्व्याघात और व्याघात, उन्हें मैं संक्षेप में कहूंगा। द्विविध अपराक्रम मरण स्थाप्य हैं। 328. उनको गण-नि:सरण आदि द्वारों से क्रमशः जानना चाहिए। गण-निःसरण आदि विभागों को मैं कहूंगा। 329-31. गण-नि:सरण, परगण, सिति-निःश्रेणी, संलेखना, अगीतार्थ, असंविग्न, एक निर्यापक, आभोजन, अन्य, अनापृच्छा, परीक्षा, आलोचना, प्रशस्त स्थान, प्रशस्त वसति, निर्यापक, द्रव्य-दर्शन, चरमकाल, हानि, अपरिश्रान्त, निर्जरा, संस्तारक, उद्वर्तना आदि, स्मारणा, कवच, निर्व्याघात, चिह्नकरण, व्याघात (आंतरिक और बाह्य) में यतना-ये उपाय भक्त-परिज्ञा में करने चाहिए। 332. गण-निःसरण की सप्तधा विधि जिस रूप में बृहत्कल्पभाष्य में वर्णित है, वही निरवशेष रूप में यहां भक्तपरिज्ञा में भी जाननी चाहिए। 333. भक्तपरिज्ञा में परिणत वीर गण से निकलकर परगण में जाकर दृढ़ निश्चय करता है। 334,335. परगण के आचार्य पूछते हैं-आप स्थविर हैं, संलेखना तप से क्लान्त हैं, फिर अपने गण से अपक्रमण करने का क्या कारण है? (स्थविर भक्तप्रत्याख्याता उत्तर देते हैं-अभ्युद्यत मरण स्वीकृत 1. व्याघात मरण का अर्थ है-भालू, रीछ आदि के द्वारा आक्रमण करने पर होने वाला मरण। * 2. कालधर का अर्थ है, जो काल को धारण करता है, तत्काल भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने की इच्छा नहीं करता। इसके विपरीत दूसरा जो काल को धारण नहीं करता, वह कालसह नहीं होता, तत्काल मरण की इच्छा करता है। व्यवहार भाष्य में 'कालऽतिचारो' पाठ है, जिसका तात्पर्य है कि जो काल का अतिक्रमण कर देता है अर्थात् काल को सहता है। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार पूति सर्प के द्वारा काटे हुए व्यक्ति का 20 दिन-रात बीतने पर भी मरण हो सकता है। दूसरा काल अनतिचार अर्थात् जो काल को नहीं सहता। उसी दिन मरने की इच्छा से भक्तप्रत्याख्यान कर लेता है। १.व्यभा 4226 मटी.प.५४। 3. निशीथ भाष्य' में 'इहई पि' के स्थान पर 'दसमम्मि' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ है व्यवहार भाष्य के दशवें उद्देशक में भी निरवशेष रूप से यह वर्णन प्राप्त है। . १.निभा 3819 / 4. स्थानांग' में गण से अपक्रमण के पांच कारणों का उल्लेख मिलता है। सातवें स्थान में सात कारणों का उल्लेख भी मिलता है। निशीथभाष्य में गण से अपक्रमण के आठ हेतुओं का उल्लेख मिलता है-१.अभ्युद्यत मरण, 2. अभ्युद्यत विहार 3. विहार-अवधावन ४.लिंग-अवधावन 5. ज्ञान 6. दर्शन 7. चारित्र 8. कलहउपशमन। इनमें तीसरा, चौथा और आठवां अप्रशस्त कारण है।' 1. स्था 5/167 / २.स्था 7/1 / 3. निभा 5594,5595 चू. पृ. 101 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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