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________________ 306 जीतकल्प सभाष्य करने से शिष्यों का रुदन और अश्रुपात देखकर) मेरे मन में करुणा उत्पन्न होती है, इससे मेरे ध्यान में व्याघात होता है इसलिए मैंने परगण में अपक्रमण किया है। दूसरी बात मेरे गण में आचार्य-आज्ञा की अवहेलना तथा मुनियों में अप्रीति आदि कारणों को देखकर मैंने गण से अपक्रमण किया है, परगण का गुरुकुलवास अप्रीति से रहित होता है। 336. उपकरण और गण के कारण व्युद्ग्रह तथा गणभेद को देखकर, बाल और स्थविरों की उचित वैयावृत्त्य की उपेक्षा देखकर अप्रीति होती है, जिससे ध्यान में व्याघात होता है। 337. स्वगण से निष्क्रमण कर देने पर आचार्य और गण-दोनों का स्नेह कम हो जाता है। भक्तपरिज्ञा में व्याघात देखकर शैक्ष मुनियों का व्युद्गम या विपरिणमन भी हो सकता है। 338, 339. श्रिति-निःश्रेणी दो प्रकार की होती है-द्रव्यथिति और भावश्रिति / द्रव्य निःश्रेणी काष्ठनिर्मित होती है। भाव निःश्रेणी संयम है, जिसके भंग इस प्रकार होते हैं -संयम-स्थान, कंडक और लेश्या की स्थिति विशेष / इनको ऊर्ध्व से ऊर्ध्व ले जाते हुए केवलज्ञान तक पहुंचना भावश्रिति है। 340. यहां भावश्रिति का अधिकार है, उसमें विशुद्धभाव से स्थित रहना चाहिए। ऊर्ध्वगमन के लिए कोई भी अधःस्थान की प्रशंसा नहीं करता। .. 341. संलेखना' तीन प्रकार की होती है-१. जघन्य 2. मध्यम 3. उत्कृष्ट। जघन्य संलेखना का काल है-छह मास तथा उत्कृष्ट संलेखना का काल है-बारह वर्ष। 342. जघन्य और मध्यम को रहने दो, मैं उत्कृष्ट संलेखना का वर्णन करूंगा। जिस संलेखना को करके मुनि अपने आत्महित के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। 343. मुनि चार वर्षों तक विचित्र तप (कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला, कभी चोला, पंचोला आदि) करता है। फिर चार वर्ष विचित्र तप के पारणे में निर्विगय करता है; इसके पश्चात् दो वर्षों तक एकान्तर तप तथा उसके पारणे में आचाम्ल तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छह मास में कोई विकृष्ट 1. संलेखना का अर्थ है-सम्यक् रूप से शरीर को कृश करना। उत्तराध्ययन सूत्र और उसकी टीका में संलेखना कब करनी चाहिए, इसका सुंदर वर्णन प्राप्त है। जब तक अपूर्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की प्राप्ति हो, तब तक साधक को अन्न-पान आदि के द्वारा जीवन को पोषण देना चाहिए। जब साधक को यह ज्ञान हो जाए कि शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विशिष्ट गुणों को प्राप्त करने में असमर्थ है, निर्जरा करने में अक्षम है,रोग और बुढ़ापे से आक्रान्त है, धर्माराधना करने में समर्थ नहीं है तो उसको शरीर से निरपेक्ष होकर विधिपूर्वक संलेखना आदि करके अन्त में अनशन द्वारा शरीर का त्याग करना चाहिए। आहार न करने के छह कारणों में भी एक कारण अंतिम मारणान्तिक अनशन है। 1. उ 4/7 शांटी. प. 217, 218 / 2. व्यवहारभाष्य में संलेखना के दो प्रकार हैं-१. जघन्य और 2. उत्कृष्ट / ' 1. व्यभा 4238 / 3. उत्तराध्ययन सूत्र में संलेखना के क्रम में कुछ अंतर है। वहां प्रारम्भ के चार वर्षों में विकृति का परित्याग किया जाता है, दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप (उपवास, बेला, तेला) आदि किया जाता है। 1. उ 36/252 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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