________________ अनुवाद-जी-१ 307 तप नहीं करता, अंतिम छह महीनों में विकृष्ट तप करता है, अतिविकृष्ट तप नहीं करता लेकिन पारणे में आचाम्ल करता है तथा (परिमित खाता है) बारहवें वर्ष में कोटिसहित आचाम्ल करता है। 344. संलेखना करने वाला प्रथम चार वर्षों में उपवास आदि विचित्र तप करता है तथा पारणे में उद्गम विशुद्ध तथा सर्व गुणों से युक्त आहार करता है। 345. पुनः अगले चार वर्षों में वह महात्मा मुनि विचित्र तप करके पारणे में विगय नहीं लेता। उसमें भी स्निग्ध और प्रणीत आहार का वर्जन करता है। 346-50. अगले दो वर्ष वह उपवास करके आचाम्ल से पारणा करता है, फिर अगले एक वर्ष उपवास का पारणा कांजी के द्वारा करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छह महीनों में उपवास अथवा बेला करके नियमतः आचाम्ल' से पारणा करता है। दूसरे छह मास में विकृष्ट तप तेला, चोला या पंचोला करके आचाम्ल से पारणा करता है। अन्तिम एक वर्ष (बारहवें वर्ष) में कोटिसहित तप करके आचाम्ल तथा उष्णोदक से पारणा करता है तथा क्रमशः एक-एक कवल कम करता है। जैसे दीपक में तैल और बाती दोनों साथ-साथ क्षीण होते हैं, वैसे ही शरीर और आयुष्य साथ-साथ क्षीण हो जाते हैं। 351-53. बारहवें वर्ष के अंतिम चार मास के प्रत्येक पारणे में एकान्तरित रूप से वह एक चुल्लू भर तैल मुंह में धारण करें। जब तक वह तैल श्लेष्म जैसा न हो जाए, तब तक धारण करे फिर उसे श्लेष्मपात्र में विसर्जित कर दे। (शिष्य जिज्ञासा करता है) गले में तैल क्यों धारण करना चाहिए? आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि तपस्या जनित रूक्षता से मुखयंत्र क्षुभित न हो तथा व्यक्ति नमस्कार मंत्र का उच्चारण करने में असमर्थ न हो इसलिए मुंह में तैल धारण किया जाता है। . 354. यह उत्कृष्ट संलेखना का कथन है। मध्यम संलेखना एक वर्ष की तथा जघन्य संलेखना छह मास की होती है। मध्यम और जघन्य संलेखना में मास और पक्षों की स्थापना करके तपोविधि पूर्ववत् करनी चाहिए। 355. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-इन तीन प्रकार की संलेखनाओं में से किसी एक संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके मुनि भक्तपरिज्ञा, इंगिनी अथवा प्रायोपगमन अनशन को स्वीकृत करे। 356, जो मुनि अगीतार्थ मुनि के पास भक्तपरिज्ञा अनशन स्वीकार करता है, उसको चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण यह है कि उससे निम्न दोष उत्पन्न होते हैं३५७. अगीतार्थ सर्वलोक में सारभूत अंग-चतुरंग का नाश कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं होती। 1. आचाम्ल अथवा उपवास करके बिना पारणा किए पुन: आचाम्ल आदि करने को कोटिसहित तप कहा जाता है। 2. निशीथ चूर्णि में पारणे में कांजी का उल्लेख है।' 1. निचू भा. 3 पृ. 294 ; एक्कारसमे वरिसे पढमं छम्मास अविकिट्ठ तवं कातुं कजिएण पारे।। 3. उत्तराध्ययन के अनुसार बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित आचाम्ल करके पक्ष या मास का आहार परित्याग करता है। 1. उ 36/255 /