________________ 308 जीतकल्प सभाष्य 358. वे चार अंग कौन से हैं, जिनके नष्ट हो जाने पर पुनः उनकी प्राप्ति दुर्लभ होती है। वे चार अंग ये हैं-१. मनुजत्व, 2. धर्मश्रुति, 3. श्रद्धा और 4. संयम में पराक्रम। 359. अगीतार्थ चतुरंग का नाश कैसे करता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि भक्तप्रत्याख्याता यदि प्रथम और द्वितीय परीषह-भूख और प्यास से पीड़ित होकर रात्रि में भक्तपान की याचना करे तो अगीतार्थ उसे निर्धर्मा -असंयमी समझकर छोड़कर जा सकता है। 360. उपाश्रय के बाहर अथवा भीतर, रात में अथवा दिन में भक्तप्रत्याख्याता को अकेला छोड़ने पर वह आर्त, दुःखार्त्त और वशार्त्त होकर प्रतिगमन-व्रतभंग आदि कर सकता है। 361. आर्त्तध्यान में मरकर वह तिर्यञ्च अथवा व्यन्तर देवों में उत्पन्न होता है। पूर्वभव के वैर का स्मरण करके वह शत्रुता का व्यवहार करता है। 362, 363. अथवा रात्रि में पानी मांगने पर अगीतार्थ उसे प्रस्रवण देता है। भक्तप्रत्याख्याता यदि दंडिक आदि हो तो रुष्ट होकर राजा को निवेदन कर सकता है। राजा कुल, गण आदि का नाश कर सकता है। वह भक्तप्रत्याख्याता रुष्ट होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। मिथ्यात्व के कारण वह संसार रूपी अटवी में दीर्घकाल तक भ्रमण कर सकता है। 364. अन्य संविग्न मुनियों के द्वारा जब वह एकाकी देखा जाता है तो वे उसे आश्वस्त करके प्रेरणा देते हैं, जिससे वह त्यक्त अभ्युद्यत मरण को पुनः स्वीकृत कर लेता है। 365. अगीतार्थ के पास भक्तप्रत्याख्यान करने पर ये अथवा अन्य दोष और अपाय. उत्पन्न हो जाते हैं। इन कारणों से अगीतार्थ के पास भक्तपरिज्ञा अनशन करना कल्पनीय नहीं है। 366. इसलिए पांच सौ, छह सौ, सात सौ अथवा इससे अधिक योजन तक अपरिश्रान्त होकर जाए और गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की अन्वेषणा करे। 367. एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्ट रूप से बारह वर्ष तक अपरिश्रान्त होकर गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की खोज करे। 368. गीतार्थ की दुर्लभता की अपेक्षा से यह क्षेत्रतः और कालत: मार्गणा कही गई है। गीतार्थ को खोजते हुए काल और क्षेत्र विषयक यह उत्कृष्ट परिमाण है। 369. प्रवचन के सर्व सार को ग्रहण करने वाला गीतार्थ मुनि निर्यापक के रूप में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान में समाधि देने का प्रयत्न करे। 370. इसी प्रकार अंसविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसका कारण क्या है? आचार्य कहते हैं-इसमें ये दोष होते हैं। 371. अंसविग्न मुनि सर्वलोक के सारभूत चतुरंग का नाश कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं होती। 372. असंविग्न निर्यापक अनेक लोगों को ज्ञात कर देता है। वह भक्तप्रत्याख्याता के लिए आधाकर्मिक