________________ अनुवाद-जी-१ 309 पानक, पुष्प आदि लेकर आ जाता है। शरीर पर चंदन आदि का सेचन करता है। उसके द्वारा लाए गए शय्या, संस्तारक, उपधि आदि भी अशुद्ध होते हैं। 373. अंसविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने पर ये तथा अन्य अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से असंविग्न के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। 374. अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ तथा इससे भी अधिक योजन तक अपरिश्रान्त होकर संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने की गवेषणा करनी चाहिए। 375. मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टत: बारह वर्षों तक बिना परिश्रान्त हुए संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने की मार्गणा करे। 376. संविग्न की दुर्लभता के आधार पर काल की यह मार्गणा कही गई है। संविग्न की गवेषणा करते हुए क्षेत्र और काल विषयक यह उत्कृष्ट परिमाण है। 377. इसलिए प्रवचन के सर्वसार को ग्रहण करने वाला संविग्न मुनि निर्यापक के रूप में उत्तमार्थभक्तप्रत्याख्यान में समाधि उत्पन्न करे। 378. एक ही निर्यापक होने से विराधना और कार्यहानि होती है। (किसी कार्यवश निर्यापक के बाहर जाने पर) अनशनी और शैक्ष त्यक्त हो जाते हैं, इससे प्रवचन की अवमानना होती है। 379. निर्यापक कभी भक्तप्रत्याख्याता मुनि हेतु पानी आदि के लिए बाहर जाए, उस समय अनशनी अव्यक्त शैक्ष से भक्त की याचना करे और वह न दे तो असमाधि से मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वह भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त हो जाता है। शैक्ष उसे भोजन दें अथवा न दें लेकिन उनके मन में प्रत्याख्यान के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है इसलिए वे धर्म से विपरीत हो जाते हैं। 380. भक्त न देने पर वह अनशनी जोर-जोर से चिल्लाते हुए कहता है कि ये मुझे बलपूर्वक मार रहे हैं। इस प्रकार प्रवचन त्यक्त हो जाता है। शैक्ष के वापस जाने पर वे जनता में प्रवचन की अवज्ञा फैलाते हैं। 381. आचार्य स्वयं अपने अतिशायी ज्ञान से अथवा किसी नैमित्तिक से जाने (कि यह भक्तप्रत्याख्यान का पारगामी होगा अथवा नहीं?) अथवा देवता के निवेदन से जाने, जैसे कंचनपुर में आचार्य ने जाना था। 382. कंचनपुर नगर में गुरु संज्ञाभूमि-विचारभूमि में गए। वहां क्षेत्र-देवता का रुदन सुनकर उनसे कारण पूछा। देवता ने रुदन का कारण बताया और कहा कि यदि मेरी बात सत्य है तो कल तपस्वी के पारणे में आया हुआ दूध रक्त में बदल जाएगा। गुरु ने संघ को आमंत्रित किया और दूसरे स्थान पर प्रस्थान कर दिया। (संघ के मुनियों ने अनशन स्वीकार कर लिया।) 383. अथवा आचार्य स्वयं या दूसरे के द्वारा जाने कि यह भक्तप्रत्याख्यान की इच्छा रखने वाला मुनि पारगामी होगा अथवा नहीं? यदि वे अपारगामी को भक्तप्रत्याख्यान करवाते हैं तो उन्हें चार गुरुमास का 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 2 /