________________ 310 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त आता है। यदि क्षेम और सुभिक्ष न हो तो निर्व्याघात रूप से भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 384. वर्षावास में तपस्वी मुनियों का चिरकाल तक एकस्थान पर निवास होता है इसलिए मुनि को विशेष रूप से वर्षाकाल में भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 385. अशिव और दुर्भिक्ष आदि के समय में भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने के ये दोष हैं-संयमविराधना, आत्मविराधना तथा आज्ञाभंग आदि। 386. अशिव आदि कारणों से उपयोग लगाए बिना अनशन करवा दे तो भक्तप्रत्याख्याता तथा उसकी उपधि का वहन करना पड़ता है, (इससे आत्म-विराधना होती है)। यदि कारणवश दोनों-उपधि और भक्तप्रत्याख्याता को छोड़कर चले जाते हैं तो भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त होता ही है, प्रवचन की अवहेलना से वह स्वयं भी त्यक्त हो जाता है। 387. एक मुनि संस्तारकगत भक्तप्रत्याख्याता है, दूसरा मुनि संलेखना कर रहा है तो तीसरे को भक्तप्रत्याख्यान करने का प्रतिषेध करना चाहिए क्योंकि तीनों के लिए निर्यापक नहीं मिलते। इससे उस तीसरे को, प्रथम दोनों को अथवा निर्यापक को असमाधि हो सकती है। 388. यदि भक्तप्रत्याख्याता के कोई व्याघात हो तो जो दूसरा संलेखना कर रहा है, उसको वहां स्थापित करके बीच में चिलिमिली-पर्दा लगा दिया जाए। जो लोग वंदना करने आएं, उनको बाहर से ही वंदना करवाई जाए। 389. यदि गच्छ को पूछे बिना गुरु भक्तप्रत्याख्याता मुनि को स्वीकार कर लेता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। गच्छ की अनिच्छा के कारण भक्तप्रत्याख्याता को जो असमाधि होती है, उसका प्रायश्चित्त भी चतुर्गुरु आता है। 390, 391. भक्तप्रत्याख्याता मुनि को समाधि के योग्य पानक आदि की प्राप्ति न होने से उसकी समाधि भंग होती है। योग्य पानक आदि की याचना में मुनियों को क्लेश की अनुभूति होती है। असमर्थ एवं अयोग्य निर्यापकों के कारण क्लेश का अनुभव होता है तथा योगवाही मुनियों को समाधिकारक द्रव्यों की गवेषणा में क्लेश होता है। इन सब कारणों से उस भक्तप्रत्याख्याता मुनि को विराधना होती है (अतः गच्छ से पृच्छा करनी चाहिए।) 392. भक्तप्रत्याख्याता मुनि एवं गच्छ के साधुओं को एक दूसरे की परीक्षा न करने पर दोनों को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा आत्म-विराधना और संयम-विराधना होती है। अकेला गच्छ अथवा एकाकी भक्तप्रत्याख्याता जो अनर्थ प्राप्त करता है, उसके निमित्त जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह भी आचार्य को प्राप्त होता है। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने गच्छ को पूछने का कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि गच्छ के साधु सब स्थानों में घूमते हैं अतः उन्हें यह ज्ञात रहता है कि किस क्षेत्र में भक्तप्रत्याख्याता के योग्य शय्या-संस्तारक आदि द्रव्य सुलभ या दुर्लभ हैं। यदि द्रव्य सुलभ हों तो आचार्य भक्तप्रत्याख्यान करवाए, अन्यथा प्रतिषेध कर दे। १.व्यभा 4282 मटी प.६२।