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________________ अनुवाद-जी-१ 311 393-95. इसलिए दोनों-भक्तप्रत्याख्याता और गच्छ एक दूसरे की द्रव्य और भाव से परीक्षा करे। द्रव्य रूप परीक्षा इस प्रकार होती है-'मेरे लिए कलमोदन, दूध और कढ़ी आदि द्रव्य लाओ' भक्तप्रत्याख्याता मुनि के ऐसा कहने पर यदि गच्छगत साधु उपहास करते हैं कि देखो यह विगय में आसक्त है या उसे कहते हैं कि तुम भक्त की इच्छा क्यों करते हो? इस प्रकार गच्छगत साधुओं की द्रव्य परीक्षा की जाती है। यदि वे भाव परीक्षा में कषाय करते हैं तो उनके पास भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार नहीं करना चाहिए। 396. विकृत आहार लाने पर यदि भक्तप्रत्याख्याता जुगुप्सा करता है तो वे साधु कहते हैं कि हम दूसरा आहार ला देंगे। यदि वे जाने के लिए तत्पर हो जाएं तो उनके पास भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 397. इस प्रकार कहकर द्रव्यतः और भावतः विधिपूर्वक मुनियों की परीक्षा करनी चाहिए। वे भी भक्तप्रत्याख्याता मुनि की द्विविध परीक्षा इस प्रकार करें। 398. कलम (उत्कृष्ट तण्डुल) को दूध के साथ लाने पर अथवा उसको जो स्वभावतः रुचिकर द्रव्य हैं, वे सम्मुख लाने पर यदि भक्तप्रत्याख्याता मुनि उस भोजन की निंदा करता है तो वह द्रव्य-परीक्षा में शुद्ध (उत्तीर्ण) हो जाता है। (उसको आहार के प्रति अलुब्ध जानकर भक्तप्रत्याख्याता के रूप में स्वीकृत कर लिया जाता है। जो उस भोज्य की प्रशंसा करता है, उसे लोलुप जानकर स्वीकार नहीं किया जाता।) 399, 400. भाव-परीक्षा में उससे पूछा जाता है कि तुमने संलेखना की या नहीं? ऐसा कहने पर यदि वह अंगुलि तोड़कर दिखाता है और कहता है कि देखो, मैंने संलेखना की है या नहीं? भक्तप्रत्याख्याता के ऐसा कहने पर गुरु कहते हैं कि तुमने अभी (भाव) संलेखना नहीं की है। 401. आचार्य कहते हैं कि मैं तुम्हारी द्रव्य-संलेखना के बारे में नहीं पूछ रहा हूं। तुम्हारे कृश शरीर को तो मैं देख ही रहा हूं। तुमने अपनी अंगुलि को भग्न क्यों किया? तुम क्रोधातुर मत बनो, भाव-संलेखना करो। 402. मुनि को प्रयत्नपूर्वक भाव-संलेखना करनी चाहिए इसलिए मैं तुमको कोंकणक और अमात्य का दृष्टान्त कहता हूं। 403, 404. राजा ने कोंकण देशवासी व्यक्ति और अमात्य को देश-निष्काशन का आदेश दिया। कोंकणक तुम्बे और कांजी को छोड़कर तत्काल वहां से चला गया। अमात्य भण्डी-गाड़ी, बैल और कापोती आदि में सामान भरने लगा। इतने में पांच दिन बीत गए। घर पर ही उसका वध करवा दिया गया। 405. इसी प्रकार जो भाव-संलेखना करते हैं, वे साधक हैं। जो भाव-संलेखना को सिद्ध नहीं करते, वे उस अमात्य की भांति होते हैं। 406. (आचार्य कहते हैं)-'शिष्य! तुम इंद्रिय, कषाय एवं गौरव (ऋद्धि, रस, सात) को कृश करो। हम तुम्हारे कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करते।' 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं .3 / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं .4 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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