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________________ 312 जीतकल्प सभाष्य 407. इस प्रकार परीक्षा करने पर यदि वह शुद्ध-उत्तीर्ण होता है तो आचार्य उसको स्वीकार करते हैं। तब वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि इस विधि से आत्मविशुद्धि करता है। 408. यदि भक्तप्रत्याख्याता पराक्रम युक्त हो तो उसे आचार्य के पास जाकर दूसरों की साक्षी से पूर्ण रूप से आत्मशुद्धि करनी चाहिए। 409, 410. जैसे कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि किसी दूसरे वैद्य को कहता है। वह वैद्य उसको सुनकर उसका परिकर्म करता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त-विधि को स्वयं भलीभांति जानते हुए भी किसी दूसरे आचार्य आदि के पास स्पष्ट रूप से आलोचना करनी चाहिए। 411. छत्तीस गुणों से युक्त होने पर भी आचार्य को किसी दूसरे आचार्य के पास आलोचना, निंदा एवं गर्दा अवश्य करनी चाहिए। 412. प्रयत्नपूर्वक आलोचना क्यों करनी चाहिए? आचार्य कहते हैं कि तुम आलोचना करने के गुणों को मुझसे सुनो। 413. आलोचना करने के निम्न गुण हैं - * पंचविध आचार की सम्यक् आराधना। * विनयगुण का विस्तार। * आलोचना करने की परिपाटी का प्रवर्तन। * आत्मा की विशोधि। * ऋजु भाव-संयम का विकास। * आर्जव, मार्दव, लाघव और संतोष की वृद्धि। * मैं शल्यमुक्त हो गया हूं, इस प्रकार की तुष्टि। * आलोचना के संदर्भ में चिन्ता का नाश होने से प्रसन्नता की वृद्धि। 414. प्रव्रज्या ग्रहण करने से लेकर भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने तक त्रिक-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे अतिचारों की आलोचना कर चतुर्धा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः विशुद्धि करनी चाहिए। उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान में जैसे स्वयं की आलोचना करे, वैसे ही पर की भी आलोचना करे। 415. तीन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा चतुष्क में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का समावेश होता है। इनमें जो अतिचार दोष लगता है, वह उन सबकी आलोचना करता है। 416. ज्ञान के निमित्त-अकल्पनीय द्रव्य का सेवन करने तथा चेतन-अचेतन से सम्बन्धित मिथ्या प्ररूपणा करने के विषय में आलोचना करना-यह ज्ञान सम्बन्धी द्रव्यतः आलोचना है। क्षेत्र आदि शेष की आलोचना इस प्रकार है४१७, 418. ज्ञान के निमित्त विहार करना क्षेत्र से सम्बन्धित अतिचार है। दुर्भिक्ष में भी ज्ञान-प्राप्ति हेतु उसी स्थान पर रहना-यह काल सम्बन्धी अतिचार है। भविष्य में ज्ञान होगा इसलिए शरीर का परिकर्म
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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