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________________ अनुवाद-जी-१ 313 करना', प्रतिदिन विगय का सेवन करना, मेधा बढ़ाने वाले मेध्य द्रव्यों की एषणा तथा उनका पान करना और वाचनाचार्य की पंचक हानि से क्रिया करना-ये ज्ञान से सम्बन्धित अतिचार हैं। 419. इसी प्रकार दर्शन में भी द्रव्य आदि से सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना होती है लेकिन उसमें भेद यही है कि दर्शन का सम्बन्ध श्रद्धा से होता है। चारित्र के विषय में भी एषणा, स्त्री-दोष युक्त वसति तथा व्रतों से सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना होती है। 420. अथवा त्रिक -ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कभी आलम्बन सहित द्रव्य, क्षेत्र आदि चतुष्क से सम्बन्धित अकल्प्य का आसेवन होता है और कभी निरालम्बन–कारण बिना भी होता है, मुनि उन सबकी आलोचना करे। . 421. यदि कहीं प्रतिसेवना सम्बन्धी अतिचार विस्मृत हो जाएं तो उनका शल्योद्धरण करने के लिए कैसे वर्तन करना चाहिए? (इस संदर्भ में आचार्य कहते हैं-) 422. जिन-जिन स्थानों में मेरे द्वारा अपराध हुए हैं, उन सबको जिन भगवान् जानते हैं। मैं उन सबकी आलोचना करने के लिए सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। 423. इस प्रकार विशुद्ध परिणाम से युक्त होकर आलोचना करता हुआ गौरवत्रिक और माया से रहित होने के कारण वह आराधक होता है। 424. भक्तप्रत्याख्याता के लिए प्रशस्त और योग्य स्थान कौन सा होता है? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि जहां ध्यान का व्याघात न हो, वह प्रशस्त स्थान है। 425, 426. ध्यान के व्याघात-स्थल निम्न हैं -1. गंधर्वशाला 2. नाट्यशाला 3. हस्तिशाला 4. अश्वशाला 5. चक्रशाला 6. यंत्रशाला 7. अग्निकर्मशाला-लोहकारशाला 8. परुष–कुंभकारशाला' ९.णंतिक्क-रंगरेजशाला 10. रजकशाला-वस्त्रधावनशाला, 11. देवड़-चर्मकारशाला, 12. डोंबशालानटशाला अथवा चांडाल जाति के गायकों की गायनशाला, 13. वादित्रशाला, 14. राजपथ', 15. चारक१. टीकाकार मलयगिरि ने शारीरिक परिकर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति या महाकल्पश्रुत जैसे विशालकाय ग्रंथ का योग वहन करने के लिए घी पीना, प्रणीत आहार करना अथवा किसी रोग के होने पर वह वृद्धि को प्राप्त न हो इसलिए भी परिकर्म करना अतिचार है। १.व्यभा 4304 मटी प.६५। 2. शुद्ध आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन कर उसकी प्राप्ति करना। इतने पर भी प्राप्ति न हो तो दस दिन की यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन कर उनकी उपलब्धि करना। जहां गान्धर्विक संगीत का अभ्यास करते हैं, वह गन्धर्वशाला कहलाती है। १.व्यभा 4312 मटी. प.६६; गन्धर्वशालायां यत्र गान्धर्विका : संगीतं कुर्वन्ति। 4. तिल पीलने के स्थान को चक्रशाला कहते हैं। १.व्यभा 4312 मटी. प.६६; चक्रशालायां तिलपीडनशालायाम्। 5. इक्षु रस पीलने के स्थान को यंत्रशाला कहते हैं। 6,7. लोहकारशाला में लोहे के कूटने तथा कुंभकारशाला में अग्नि के परिताप से ध्यान में व्याघात उत्पन्न होता है। 8. राजपथ पर राजा की सवारी आने-जाने से उसकी समृद्धि देखकर कोई मुनि निदान कर सकता है इसलिए वह वर्जित है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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