________________ 314 जीतकल्प सभाष्य बंदीशाला, 16. कौष्ट्रकशाला-बढ़ईशाला, 17. कल्लाल-मद्यपानशाला, 18. क्रकच-काठ चीरने का स्थान, 19. पुष्पवाटिका, 20: उदक अर्थात् सरोवर, तालाब आदि के पास, 21. उद्यान, 22. यथाविकटअसंगुप्त द्वार वाला स्थान, 23. नागगृह तथा पूर्वभणित (बृहत्कल्प) में कथित स्थान भक्तप्रत्याख्याता के लिए उपयुक्त नहीं होते। 427. कल्पाध्ययन के प्रथम और द्वितीय उद्देशक में तथा विधिसूत्र (आचारचूला) में जिन उपाश्रयों का निषेध किया गया है, मुनि उनमें न रहे, इसके विपरीत स्थान में रहे। 428. उद्यान, वृक्षमूल, शून्यगृह, अननुज्ञात और हरियाली से युक्त मार्ग तथा इस प्रकार के अन्य स्थानों में भक्तप्रत्याख्याता मुनि नहीं रहता क्योंकि वहां समाधि में व्याघात होता है। 429. जहां इंद्रियप्रतिसंचार (इष्ट-अनिष्ट शब्द, रूप, गंध आदि) नहीं होता तथा मानसिक क्षोभ पैदा करने वाली स्थितियां नहीं होतीं, वैसी दो चतुःशालाओं की आज्ञा लेकर एक में भक्तप्रत्याख्याता तथा दूसरे में गच्छ के अन्य साधु रहते हैं। 430. वृषभ मुनि पानक और योग्य आहार को वहां स्थापित करे, जहां अपरिणत साधु और भक्तप्रत्याख्याता न जाए। अपरिणत मुनियों के वहां जाने से उनके मन में अविश्वास तथा भक्तप्रत्याख्याता के वहां जाने से उसके मन में खाने के प्रति आसक्ति हो सकती है। (अविश्वास और गृद्धि से बचाने के लिए वृषभ मुनि ऐसा करते हैं।) 431. गीतार्थ और भावित होने पर भी पहले भुक्तभोगी और आहारधर्मा होने के कारण वह आहार को देखकर शीघ्र ही क्षुब्ध हो सकता है। 432. जहां अनुकूल-प्रतिकूल विषय दूर हों, वहां भक्तप्रत्याख्याता को स्थित करके ज्ञानी होने पर भी उसके समक्ष धर्मचर्चा करनी चाहिए। 433. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील आदि स्थानों से परिवर्जित, प्रियधर्मा, पापभीरु, गुणसम्पन्न और अपरिश्रान्त–इन गुणों से युक्त निर्यापक होते हैं। 434. भरत और ऐरवत क्षेत्र में जब जिस रूप में जैसा काल होता है, उसी के अनुसार अड़तालीस निर्यापक होते हैं। 435. निर्यापक के बारह चतुष्क और उनके कार्य इस प्रकार हैं-एक चतुष्क उद्ववर्तन-परावर्तन कराने वाला, दूसरा अभ्यन्तर मूलद्वार में स्थित रहने वाला, तीसरा संस्तारक करने वाला, चौथा धर्म-कथा कहने वाला, पांचवां वाद करने वाला, छठा अग्रद्वार पर स्थित रहने वाला, सातवां योग्य भक्त लाने वाला, आठवां योग्य पानक लाने वाला, नौवां उच्चार का परिष्ठापनकर्ता. दसवां प्रस्रवण का परिष्ठापक. ग्यारहवां आगंतुक लोगों को कथा कहने वाला तथा बारहवां चारों दिशाओं में स्थित चार समर्थ पुरुषों का चतुष्क। 1. निशीथ चूर्णि के अनुसार एक ही वसति में रहने से चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एक ही वसति में रहने से अन्न और पानक की गंध से भक्तप्रत्याख्याता का ध्यान विचलित हो सकता है।' 1. निचू 3 पृ. 297 /