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________________ अनुवाद-जी-१ 315 436. इन बारह कार्यों में एक-एक में चार-चार मुनि नियुक्त होते हैं। पूर्व आदि चारों दिशाओं में भी एकएक निर्यापक रहता है। इस प्रकार निर्यापकों की संख्या 1244-48 हो जाती है। 437. निर्यापकों की उत्कृष्ट संख्या 48 है। कम से कम दो निर्यापक होने आवश्यक हैं। दो गीतार्थ क्यों रहने चाहिए? इसका कारण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि यदि एक भिक्षा के लिए जाए तो कम से कम एक निर्यापक भक्तप्रत्याख्याता के पास रहे, भक्तप्रत्याख्याता अकेला न रहे। 438. सभी भक्तप्रत्याख्याता को अंतिम काल में अतीव तृष्णा-आहार की आकांक्षा उत्पन्न होती है अतः चरम आहार के रूप में उसे इष्ट आहार देना चाहिए। 439. अनुपूर्वीविहारी समाधि का इच्छुक भक्तप्रत्याख्याता मुनि को निर्यापक नौ प्रकार की विगय', सात प्रकार के ओदन, अठारह प्रकार के व्यञ्जन तथा प्रशस्त पानक आदि उपहृत करे। (वैसा करने से उसकी तृष्णा का अपनयन हो जाता है।) 440. भक्तप्रत्याख्याता ने कालानुमत और स्वभावानुमत (काल के अनुकूल एवं इच्छा के अनुकूल) अमुक प्रकार का आहार पहले सेवन किया है, यह किसी से सुनकर अथवा देखकर निर्यापक उसे वैसा ही चतुर्विध आहार यतनापूर्वक लाकर दे। 441. आहार की आकांक्षा का उच्छेद हो जाने पर पुनः आहार के प्रति उसका वैसा भाव उत्पन्न नहीं होता। यदि कदाचित् आकांक्षा उत्पन्न हो भी जाती है तो निम्न चिंतन से उसका निवर्तन कर लेता है। 442. भक्तप्रत्याख्याता चिन्तन करता है कि वह कौन सी वस्तु है, जिसका मैंने उपभोग नहीं किया है। शुचि पदार्थ भी शरीर में परिणत होकर अशुचि स्वरूप हो जाते हैं। वह तत्त्वदर्शी मुनि शुभ ध्यान में लीन रहता है। आहार के लिए प्रेरित करने पर वह अवसन्न होता है। 443. यह अंतिम आहार कर रहा है, ऐसा सोचकर उभयपक्ष-गृहस्थ और निर्यापक संयत -दोनों के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। भक्तप्रत्याख्याता को इस विधि से चरम आहार दिया जाता है४४४. यह भक्तप्रत्याख्याता त्रिविधा आहार-(अशन, खादिम, स्वादिम) छोड़ेगा इसलिए निर्यापक उत्कृष्ट द्रव्यों की यतनापूर्वक याचना करके उसे चरम आहार देते हैं। 445. उसको देखकर कोई तीरप्राप्त (संसार का किनारा पाने वाला) मुनि चिन्तन करता है कि मुझे इन वस्तुओं से अब क्या प्रयोजन? इस प्रकार वैराग्य को प्राप्त करके वह संवेगपरायण हो जाता है। 446. कोई भक्तप्रत्याख्याता मनोज्ञ आहार का भोग करके सोचता है कि मुझे धिक्कार है। अब मुझे इस 1. व्यवहार और निशीथ भाष्य में कम से कम तीन निर्यापक होने चाहिए, ऐसा उल्लेख मिलता है। 1. व्य 4323, नि 3886 / / २.निभा (3887) में 'णवविगति सत्तओदण' के स्थान पर 'णवसत्तए दसमवित्थरे' पाठ मिलता है। इसमें दसमवित्थरे से विस्तृत अवगाहिम विगय को गृहीत किया गया है, जिसमें मिठाई, व्यञ्जन आदि अनेक द्रव्यों का ग्रहण होता है। 3. व्यवहारभाष्य की टीका में त्रिविध का अर्थ मन, वचन और काया किया है। 1. व्यभा 4329 मटी प.६९।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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