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________________ 316 जीतकल्प सभाष्य आहार से क्या प्रयोजन? इस प्रकार वह वैराग्य को प्राप्त होकर संवेगपरायण हो जाता है। 447. कोई भक्तप्रत्याख्याता सब प्रकार का आहार-भोग करके मनोज्ञ रस में परिणत होकर देशतः या सर्वतः आसक्ति से प्रतिबद्ध हो जाता है। 448. चरम आहार में द्रव्यतः एवं परिमाणतः न्यूनता करके विगय अथवा आहार में अनुबंध-आसक्ति का व्यवच्छेद करना चाहिए। आहार के प्रति अनुबंध रखने वाले को तीन कारणों से आहार दिया जाता है-१. गुणवृद्धि अर्थात् कर्मनिर्जरा 2. समाधि 3. अनुकम्पा। 449. चरम आहार में द्रव्यतः और परिमाणतः तीन दिनों तक प्रतिदिन आहार की न्यूनता करनी चाहिए। (परिमाण में प्रतिदिन द्रव्य की हानि करनी चाहिए, जैसे पहले दिन खीर लाए तो दूसरे दिन दही और तीसरे दिन ध।) दुर्लभ द्रव्य के विषय में भक्तप्रत्याख्याता को कहना चाहिए कि मुने! यह आहार प्राप्त नहीं होता तथा सुलभ द्रव्य के विषय में यह यतना है। 450. मुने! आहार सम्बन्धी आसक्ति का व्यवच्छेद करो। जो तुमने पहले नहीं खाया था, तीरप्राप्त होने पर भी तुम उसकी इच्छा क्यों कर रहे हो? 451. कर्म निर्जरा करने वाले श्रेष्ठ निर्यापक मुनि भक्तप्रत्याख्याता मुनि के सब प्रतिकर्म करने में रातदिन अपरिश्रान्त होकर लगे रहते हैं। 452. जो प्रतिचारक जिस प्रतिकर्म में कुशल होता है, शक्ति होते हुए वह उस प्रतिकर्म को नहीं छोड़ता। सभी निर्यापक अपने कर्म में उद्यत रहते हैं और भक्तप्रत्याख्याता की श्रद्धा को उद्दीप्त.करते रहते हैं। 453. देह का वियोग शीघ्र हो अथवा विलम्ब से, फिर भी भक्तप्रत्याख्याता और निर्यापक-दोनों के प्रवर्धमान निर्जरा होती है। गच्छ इसीलिए होता है कि परस्पर उपकार से दोनों की निर्जरा हो। 454. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। स्वाध्याय में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मों का क्षय करता है। 455. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। कायोत्सर्ग में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 456. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। वैयावृत्त्य में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 457. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। उत्तमार्थ (अनशन) में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 458. भक्तप्रत्याख्याता मुनि का संस्तारक भूमि-शिला, फलक आदि का हो सकता है। संस्तारक के उत्तरपट्ट' एक, दो अथवा अनेक भी हो सकते हैं। १.यदि एक उत्तरपद बिछाने से भक्तप्रत्याख्याता को असमाधि हो तो दो अथवा अनेक उत्तरपद्र भी हो सकते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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