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________________ अनुवाद-जी-१ 317 459. यदि वह भी पर्याप्त न हो तो अझुषिर तृण आदि के तीन संस्तारक करे। उसके अभाव में यदि असमाधि हो तो शुषिर तृणों का संस्तारक करे। 460. यदि तृण-संस्तारक से समाधि न रहे तो भूमि पर कोयव-रुई से भरा वस्त्र (रजाई), उसके प्रावरण, नवय-ऊन का बना आस्तरण, दोनों पार्श्व में तूली अथवा आलिंगिनी रखे। यदि यह भी सहन न होता हो तो पर्यंक पर संस्तारक आदि करे। 461. यदि भक्तप्रत्याख्याता समर्थ हो तो वह स्वयं अपने वस्त्र एवं उपकरणों का प्रतिलेखन करता है, संस्तारक बिछाता है, पानक पीता है, उद्ववर्तन तथा गमन-निर्गमन आदि क्रियाएं करता है। यदि वह असमर्थ हो तो ये सारी क्रियाएं दूसरे मुनि करते हैं। 462. जो निर्यापक शरीर से पुष्ट तथा बलवान् है, वह उस भक्तप्रत्याख्याता को वसति से निष्क्रमण और प्रवेश करवाता है। यदि वह उसे सहन नहीं कर पाता तो संस्तारक में ही सारी क्रियाएं करवाता है। 463. उसकी समाधि के लिए मृदु संस्तारक करना चाहिए। उसे भी सहन नहीं करने पर उसकी समाधि के लिए इस उदाहरण को प्रस्तुत करना चाहिए। 464. धीर पुरुष द्वारा प्रज्ञप्त, सत्पुरुषों द्वारा सेवित, परम रम्य अभ्युद्यत मरण को स्वीकृत करके जो शिलातल पर स्थित होकर निरपेक्ष रूप से मरण की साधना कर रहे हैं, वे धन्य हैं। 465, 466. जिनकी धृति अत्यन्त सहायक है, ऐसे अतिशय धीर मुनि श्वापद-जंगली पशुओं से आकुल गिरि-कंदराओं में, विषम कटक तथा दुर्गों में उत्तमार्थ (अनशन) की साधना करते हैं तो फिर अनगारों की सहायता से तथा अन्यान्य बल के संग्रह से पारलौकिक उत्तमार्थ की साधना शक्य क्यों नहीं हो सकती है? - 467. जिनेश्वर के वचनों का माधुर्य अपरिमित होता है, वे अग्नि में घृताहुति की भांति कानों को तृप्त करते हैं। जो साधुओं के पास उन वचनों को सुनते हैं, वे संसार-समुद्र तर सकते हैं। 468, 469. सब काल में, सभी कर्मभूमियों में होने वाले सर्वज्ञ, सर्वगुरु, सर्वपूजित, मेरु पर्वत पर अभिषिक्त, सभी लब्धियों से सम्पन्न, सर्व परीषहों को पराजित करके सभी तीर्थंकर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करके सिद्धिगति को प्राप्त हुए। 470. अतीत, अनागत और वर्तमान के शेष सारे अनगारों में कुछ प्रायोपगमन, कुछ भक्त-प्रत्याख्यान तथा कुछ इंगिनीमरण को प्राप्त हुए। 471. सभी आर्याएं (साध्वियां), सभी प्रथम संहनन से रहित मुनि तथा सभी देशविरत श्रावक भक्तप्रत्याख्यान अनशन से मरते हैं। 472. सब सुखों को उत्पन्न करने वाला, जीवन का सार तथा सभी का जनक आहार से बढ़कर और कोई उत्तम रत्न इस संसार में नहीं है। 473. शैलेशी अवस्था को प्राप्त अयोगी केवली, सिद्ध, विग्रह गति में स्थित जीव तथा केवलि-समुद्घात वाले जीवों को छोड़कर सभी संसारस्थ जीव सभी अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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