________________ अनुवाद-जी-१ 287 155. परिनिष्ठित का अर्थ है-सम्यक् परिज्ञाता तथा प्रतिष्ठित का अर्थ है-अठारह स्थानों में सम्यक् स्थित। ऐसा व्यक्ति ही आलोचना देने के योग्य होता है। जो अजानकार है, वह शोधि को नहीं जानता तथा जो अठारह स्थानों में स्थित नहीं है, वह अन्यथा प्रायश्चित्त देता है। 156. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य नहीं होता। 157. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में परिनिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य होता है। 158. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में अप्रतिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य नहीं होता है। 159. जो आलोचनार्ह बत्तीस स्थानों में सम्यक् प्रतिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य होता है। 160. आचार्य की आठ प्रकार की संपदाएं होती हैं। प्रत्येक संपदा चार-चार प्रकार की होती है। इनके बत्तीस स्थान इस प्रकार हैं१६१. आचारसंपदा, श्रुतसंपदा, शरीरसंपदा, वचनसंपदा, वाचनासंपदा, मतिसंपदा, प्रयोगमतिसंपदा और आठवीं संपदा है-संग्रहपरिज्ञा। 162. ये आठ प्रकार की गणिसंपदाएं हैं। एक-एक संपदा के चार-चार भेद हैं। अब मैं इनको संक्षेप में क्रमशः कहूंगा। 163, 164. आचार-संपदा का प्रथम भेद है-संयमध्रुवयोगयुक्तता, दूसरा भेद है-असम्प्रग्रहीता, तीसरा है-अनियतवृत्तिता और चौथा है-वृद्धशीलता-ये आचार-संपदा के चार भेद हैं। संयम का अर्थ है-चरण, उसके ध्रुवयोग में नित्य उपयुक्त होना संयमध्रुवयोगयुक्तता है। 165. मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं, आभिजात्य हूं, इस प्रकार के मदों से जो रहित है, वह असंप्रग्रहीत कहलाता है। 166. जो अनियतचारी, अनियतवृत्ति', अगृह-अनिकेत और अनिश्रित है तथा जो शान्तस्वभाव वाला 1. प्रवचनसारोद्धार में आचार-सम्पदा के निम्न चार भेद मिलते हैं-१. चरणयुक्त 2. मदरहित 3. अनियतवृत्ति 4. अचंचल। इनमें शाब्दिक भिन्नता है, फलितार्थ समान है। 1. प्रसा 543 ; चरणजुओ मयरहिओ, अनिययवित्ती अचंचलो चेव। 2. दशाश्रुतस्कंध में अनियतवृत्ति की व्याख्या मिलती है। वहां अनियतवृत्ति के अनेक अर्थ किए हैं• ग्राम में एक दिन तथा नगर में पांच दिन का प्रवास करना, अन्य-अन्य वीथियों में भिक्षा करना। * अगृही-अनिकेत होना। * उपवास आदि तपस्या करना तथा एषणा सम्बन्धी अभिग्रह विशेष धारण करना। 1. दश्रु 4/4, चू प. 21 /