SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286 जीतकल्प सभाष्य तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते हैं। 144. यदि आलोचना करने वाला प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना करता है तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं। 145. आगम व्यवहारी आलोचक को कहते हैं कि सारे अतिचारों को कह दो। इतना कहने पर वह यदि जानता हुआ भी अतिचारों को छिपाता है तो आगम-व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। वे उसे कहते हैं कि तुम अन्यत्र शोधि–प्रायश्चित्त करो। 146. जो माया से नहीं अपितु सहजभाव से दोषों की स्मृति नहीं करता, उसे प्रत्यक्षज्ञानी उस दोष के बारे में बताते हैं अथवा याद दिलाते हैं लेकिन मायावी को कुछ नहीं बताते। 147. यदि आगम और आलोचना दोनों विषम-विसंवादी होते हैं तो आगम व्यवहारी उसको प्रायश्चित्त नहीं देते। 148. यदि आगम और आलोचना दोनों संवादी होते हैं तो आगम व्यवहारी उसको प्रायश्चित्त देते हैं। 149. प्रायश्चित्त देने में कौन योग्य या अयोग्य होता है, इसके बारे में कहा जा रहा है, उसे तुम सुनो। 150, 151. जो मुनि अठारह स्थानों में अपरिनिष्ठित अर्थात् सम्यक् ज्ञाता नहीं होता, वह व्यवहार का प्रयोग करने योग्य नहीं होता। इसी प्रकार जो मुनि अठारह स्थानों में परिनिष्ठित-सम्यक् ज्ञाता होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है। 152, 153. जो मुनि अठारह स्थानों में अप्रतिष्ठित-सम्यक् स्थित नहीं होता, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य नहीं होता। जो मुनि अठारह स्थानों में सुप्रतिष्ठित-सम्यक् स्थित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है। 154. अठारह स्थान इस प्रकार हैं-छहव्रत (प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रिभोजन से विरति), छहकाय (पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु, वनस्पति और त्रसकाय का संयम), अकल्प', गृहि-पात्र, पर्यंक, गोचर-निषद्या', स्नान और विभूषा का वर्जन। 1. चूर्णि की विषमपद व्याख्या के अनुसार अकल्प दो प्रकार का होता है -1. शैक्षस्थापना अकल्प २.अकल्प्यस्थापना अकल्प। पिण्डनियुक्ति आदि ग्रंथों को नहीं पढ़ने वाले साधु के द्वारा आनीत आहार अकल्प्य होता है तथा उद्गम उत्पादन दोष से युक्त आहार अकल्प्यस्थापना अकल्प होता है। १.जीचूवि पृ. 35; तत्राकल्पो द्विविधः-शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्प्यस्थापनाकल्पश्च तत्राद्य:-अनधीतपिण्ड निर्युक्त्यादिशास्त्रसाधुना आनीतमाहारादि साधुभ्यो न कल्पते....। 2. भिक्षार्थ गए साधु को सामान्यतः गृहस्थ के घर बैठना कल्पनीय नहीं है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार अपवाद स्वरूप तीन प्रकार के साधु गृहस्थ के घर बैठ सकते हैं -1. वृद्ध साधु 2. रोगी साधु 3. तपस्वी साधु / यद्यपि ये तीनों भिक्षार्थ नहीं जाते हैं लेकिन आत्मलब्धि से प्राप्त भिक्षा-ग्रहण का अभिग्रह करने वाले साधुओं की अपेक्षा से इन तीन प्रकार के साधुओं को गृहस्थ के घर बैठना कल्पनीय है। १.दश६/५९। 3. निशीथभाष्य में स्नान करने के निम्न दोषों का उल्लेख है-१.षड्जीवनिकाय की विराधना 2. पुन:-पुनः स्नान करने की इच्छा होना 3. गौरव की भावना 4. विभूषा 5. परीषहभीरुता 6. अविश्वास। १.निभा 911; छक्कायाण विराधण, तप्पडिबंधोय गारव-विभूसा। परिसहभीरुत्तंपिय, अविस्सासो चेव ण्हाणम्मि॥
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy