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________________ अनुवाद-जी-१ 285 132, 133. द्रव्य से सचित्त आदि, पर्याय से द्रव्य के बहुविध विकल्प, क्रम से पूर्वानुपूर्वी क्रम', क्षेत्र से मार्ग या जनपद में, काल से सुभिक्ष अथवा दुर्भिक्ष में, भाव से स्वस्थ अवस्था में या ग्लान अवस्था में, जिस रूप में प्रतिसेवना की है, उसकी उसी प्रकार आलोचना करे। 134. अथवा सहसा, अज्ञानवश, भय से, दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर, व्यसन-द्यूत आदि से, प्रमाद से, मूढ़ता से अथवा राग-द्वेष से (इन कारणों से प्रतिसेवना करने पर उसी रूप में आलोचना करने पर आगम व्यवहारी प्रायश्चित्त देते हैं, अन्यथा नहीं।) 135. पहले भूमि पर जीव दिखाई नहीं दिया अतः आगे रखने के लिए पैर उठा लिया, बाद में देखने पर ज्ञात हुआ कि वहां जीव हैं किन्तु पैर को पुनः पीछे करना शक्य नहीं है, उससे जो जीव का व्याघात होता है, वह सहसाकरण है। 136. पांच प्रकार के प्रमाद में से जो किसी एक भी प्रमाद में संप्रयुक्त नहीं है फिर भी भूतार्थ क्रियाओं में अनुपयुक्त है, वह अज्ञान है। 137. अभियोग के भय से भयभीत होकर भागने वाला व्यक्ति जीव-हिंसा करता है। दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर व्यक्ति गिरे अथवा न गिरे पर वह अन्य जीवों को पीड़ा पहुंचाता है। 138. द्यूत आदि व्यसन हैं। प्रमाद पांच प्रकार का होता है। मिथ्यात्व भावना से मोह होता है। राग और द्वेष सहज गम्य हैं। 139. इन कारणों में किसी भी कारण के उत्पन्न होने पर आगम व्यवहारी आलोचना देते समय सूत्र और अर्थ-दोनों से आगम-विमर्श करते हैं। 140. यदि आगम और आलोचना दोनों सम रूप में अर्थात् अविसंवादी रूप में प्रस्तुत होते हैं तो वह आगम-विमर्श कहलाता है अथवा यह आलोचक इस प्रायश्चित्त को सहन कर सकता है अथवा नहीं, 'किस प्रायश्चित्त से इसकी विशोधि होगी, यह विमर्श आगम-विमर्श है। 141. जिन्होंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर लिया है, राग-द्वेष को क्षीण कर दिया है अथवा जो शोधि-प्रायश्चित्त के लिए इष्ट हैं, वे आप्त कहलाते हैं। 142. जो तदुभय कहा गया है, उसकी यह परिभाषा है-सूत्र और अर्थ उभय तथा आलोचना और आगम उभय। 143. यदि आलोचना करने वाला प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना नहीं करता है १.प्रतिसेवक को क्रमबद्ध आलोचना करनी चाहिए। आगे-पीछे या अक्रमपूर्वक करने से सम्यक आलोचना नहीं हो सकती। २.निशीथ चूर्णि में भूतार्थ क्रिया का अर्थ है-विचार, विहार, संस्तारक तथा भिक्षा आदि संयम-साधिका क्रिया। १.निभा 96 चू पृ. 44 ; भूयत्थो णाम विआर-विहार-संथार-भिक्खादिसंजमसाहिका किरिया भूतत्थो। .3. अज्ञान को अनाभोग प्रतिसेवना भी कहा जा सकता है। इसमें हिंसा की प्रवृत्ति नहीं होने पर भी उपयोग का अभाव होने से प्रतिसेवना होती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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