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________________ 284 जीतकल्प सभाष्य - व्यक्ति के यथावस्थित भावों को जानकर शोधि करते हैं। 123. जिस श्रुतज्ञान से जीव-अजीव आदि सब पदार्थों के पर्यायों को जाना जाता हैं, उसी श्रुतोपदेश से पूर्वधर शोधि को करते हैं। 124. वह श्रुतज्ञान किसके द्वारा कृत है, जिससे जीव आदि सब पदार्थ जाने जाते हैं। (आचार्य उत्तर देते हैं) केवलज्ञानियों ने वह श्रुतज्ञान प्रस्तुत किया है। 125, 126. आगम व्यवहारी के होने पर भी जब अपराधकर्ता आलोचनीय की सम्यक् आलोचना नहीं करता, तब आलोचनीय की स्मृति कराने पर वह अपराध को स्वीकार कर लेता है, आगमव्यवहारी जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशुद्धि होती है, उतना प्रायश्चित्त देते हैं। छहों प्रकार के आगम व्यवहारी माया करने या दोष छिपाने पर प्रायश्चित्त नहीं देते। 127. जो अपराध की आलोचना करता है, उसका प्रतिक्रमण कर लेता है, उसके नियमतः आलोचना . (आराधना) होती है। आलोचना न करने पर आराधना की भजना रहती है (शिष्य प्रश्न पूछता है) उसके भजना कैसे होती है? 128, 129. आलोचना में उद्यत परिणाम वाला मुनि आलोचना के लिए गुरु की दिशा में प्रस्थित होने पर बीच में ही कालगत हो जाए अथवा आचार्य कालगत हो जाए और वह आलोचना न कर पाए तो भी वह आराधक होता है क्योंकि वह सम्यक् आलोचना के भाव में परिणत है। आलोचना के परिणाम में अपरिणत मुनि आराधना नहीं कर पाता। इस प्रकार आलोचना न करने पर भजना कही गई है। 130. यद्यपि आगम व्यवहारी आलोचक के अपराध को तथा उसकी शोधि-प्रायश्चित्त को जानते हैं, फिर भी भगवान् ने आचार्य के समक्ष आलोचना करने की बात कही है। आलोचना करने वाले में बहुत गुण निष्पन्न होते हैं। 131. द्रव्य', उसकी पर्याय-अवस्था विशेष, क्रमबद्ध , क्षेत्र, काल और भाव से परिशुद्ध आलोचना को सुनकर आगम व्यवहारी प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। 1. व्यवहारभाष्य में एक अन्य कारण और बताया गया है कि आलोचना में परिणत मुनि यदि मार्ग में ही रोग के कारण अमुख-मुंह का लकवा या बोलने में असमर्थ हो जाए अथवा आचार्य बोलने में समर्थ न रहे तो आलोचना न करने पर भी वह आराधक होता है। १.व्यभा 4053; कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ।अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तह वि भयणेवं॥ 2. जब प्रतिसेवक सचित्त का सेवन करके सचित्त की आलोचना करता है तो वह द्रव्यत: शुद्ध आलोचना है। जब वह सचित्त की प्रतिसेवना करके अचित्त की आलोचना करता है तो वह द्रव्यत: अशुद्ध आलोचना है। ३.जिस अवस्था में प्रतिसेवना की, उसी अवस्था की आलोचना करे तो वह पर्याय शुद्ध आलोचना है। यदि अन्य अवस्था में प्रतिसेवना करके अन्य अवस्था की आलोचना करता है तो वह पर्याय से अशद्ध आलोचना है।। ४.जनपद या मार्ग में जहां प्रतिसेवना की, उसी रूप में आलोचना करता है तो क्षेत्र से शुद्ध आलोचना है। जनपद में प्रतिसेवना करके अटवीगत मार्ग की आलोचना करने से वह क्षेत्रतः अशुद्ध आलोचना है। ५.सुभिक्ष-दुर्भिक्ष अथवा रात्रि या दिन में प्रतिसेवना करने पर उसी रूप में आलोचना करना काल से शुद्ध आलोचना है। सुभिक्ष में प्रतिसेवना करके दुर्भिक्ष का कहना रात्रि में प्रतिसेवना करके दिन का कहना कालत: अशुद्ध आलोचना है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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