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________________ अनुवाद-जी-१ 283 109. प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी दो प्रकार के होते हैं-इंद्रिय प्रत्यक्ष और नोइंद्रिय प्रत्यक्ष। अब मैं परोक्ष आगम व्यवहारी को इस प्रकार कहूंगा।। 110. जिसका आगम (चतुर्दशपूर्व का ज्ञान) परोक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष आगम के समान होता है, वह भी आगम व्यवहारी होता है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है। 111, 112. ज्ञात और आगमिक (ज्ञान और आगम)-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। जिसका आगम ज्ञान परायत्त–पराधीन होता है, उसे परोक्ष कहा जाता है। श्रुतधर परोक्ष आगम से व्यवहार करते हैं। उसके ये भेद हैं-चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, नवपूर्वी अथवा गंधहस्ती के समान आचार्य। 113. श्रुतज्ञान से व्यवहार करने वाले आगम व्यवहारी कैसे हैं? (आचार्य उत्तर देते हैं-)उन चतुर्दशपूर्वधर आदि आचार्यों ने जीव आदि नवपदार्थों को सभी नय-विकल्पों से प्राप्त कर लिया है अर्थात् ज्ञात कर लिया है। 114. जैसे केवली केवलज्ञान के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से चतुर्लक्षण (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) को जानता है। 115, 116. प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। वे पांच दिन की प्रतिसेवना करने वाले को पांच दिन या मासिक प्रायश्चित्त तथा दूसरे को मासिक जितनी प्रतिसेवना करने पर पच्चीस दिन या पांच दिन का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। वे एक उपवास जितनी प्रतिसेवना करने वाले को पांच उपवास तथा दूसरे को पांच उपवास जितनी प्रतिसेवना करने पर एक उपवास जितना प्रायश्चित्त देते हैं। इसी प्रकार चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। " 117. चोदक प्रश्न करता है कि प्रत्यक्षज्ञानी अल्प अपराध में बहुत और अधिक अपराध में थोड़ा प्रायश्चित्त कैसे देते हैं? आचार्य कहते हैं कि यहां वणिक् का दृष्टान्त सुनो। .118. जैसे निपुण रत्नवणिक् जिस रत्न का जो मूल्य है, उसको जानता है। वह बड़े रत्न का थोड़ा मूल्य तथा किसी छोटे रत्न का भी बहुत मूल्य करता है। 119. अथवा बहुत बड़े काचमणि का भी काकिणी जितना मूल्य होता है और छोटे से वज्रमणि का भी शतसहस्र-लाख जितना मूल्य होता है। 120. इसी प्रकार जिनेश्वर भगवान् अनेक मास प्रायश्चित्त के योग्य अपराध में भी राग-द्वेष की अल्पता के कारण स्तोक प्रायश्चित्त देते हैं और राग द्वेष की वृद्धि से पंचक-पांच दिन जितने अपराध में भी बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। 121. प्रत्यक्षज्ञानी प्रतिसेवक के भाव को प्रत्यक्ष रूप से देखता है। परोक्ष चतुर्दशपूर्वी आदि उसे कैसे जानते हैं? इस प्रसंग में धमक (शंख बजाने वाले) का दृष्टान्त है। 122. जैसे नाली (पानी की घड़ी) से गिरते हुए पानी के परिमाण के आधार पर धमक शंख बजाकर समय की सूचना देता है, वैसे ही परोक्षज्ञान की स्थिति में चतुर्दशपूर्वी भी आलोचना को सुनकर श्रुत से
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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