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________________ 282 जीतकल्प सभाष्य 97. ज्ञेय चार प्रकार (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) का जानना चाहिए। उसकी प्ररूपणा के लिए केवलज्ञान के चार प्रकार हैं। गा. 96 में जो अह (अथ) सर्वद्रव्य आदि शब्द कहे गए हैं, उनका वर्णन पहले किया जा चुका है। 18. भिन्न (संभिन्न) शब्द का ग्रहण इसलिए किया गया है कि एक ही काल में वह द्रव्य, क्षेत्र आदि चारों. के परिणमन से होने वाली पर्यायों को एक साथ जानता है। 99. जीव और अजीव की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यत्व की पर्यायों को केवलज्ञान जानता-देखता है। धर्मअधर्म और आकाश इन तीनों का परिणमन परप्रत्ययिक होता है। 100. गति, स्थिति, अवगाहना तथा जीव-अजीव के संयोग और वियोग से धर्मास्तिकाय आदि में परिणमन होता है। जीव के औदयिक आदि भावों का भी परिणमन होता है। 101. इन द्रव्य आदि के परिणमन का हेतु काल है। काल के कारण ही प्रत्येक पदार्थों के वर्ण आदि में सूक्ष्म और स्थूल परिणमन होता है। 102. द्रव्य आदि के परिणामों को केवली सम्पूर्ण रूप से जानता है। परिणाम क्या होता है? उसका कारण यह है। १०३.परिणमन दो कारणों से होता है-विस्रसा (स्वाभाविक) और प्रयोगजन्य। बादल आदि स्कन्धों का उत्पाद और परिणमन विनसा-स्वाभाविक है। प्रयोगजन्य परिणमन 15 प्रकार का होता है। यह परिणमन तीनों कालों में होता है। 104. जो मनुष्य केवली होता है, वह अन्य प्राणियों को बाधा उत्पन्न नहीं करता। वह नियमतः शेष कर्मों का क्षय करके अनाबाध मोक्ष को प्राप्त करता है। 105. जो छद्मस्थों का ज्ञान होता है, वह केवलियों में नहीं होता इसलिए छद्मस्थ क्षायोपशमिक ज्ञान में रहते हैं। 106. केवलज्ञान नियमतः क्षायिकभाव में वर्तमान रहता है। तदावरणीय कर्मों के क्षीण हुए बिना अथवा क्षयोपशमभाव (मति आदि ज्ञान) में क्षायिकभाव की उत्पत्ति नहीं होती। 107. इसलिए केवलज्ञान को एकविध स्वीकार किया गया है क्योंकि केवलज्ञान होने पर छद्मस्थ को होने वाले चारों ज्ञान (मतिज्ञान आदि) व्यर्थ हो जाते हैं। 108. जो धर्म के आदिकर्ता हैं, श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न हैं, वे जिनेश्वर भगवान् सर्वत्रकज्ञान-केवलज्ञान से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। (वे आगम व्यवहारी होते हैं।) 1. प्रयोगज परिणमन के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं-चार मन के, चार वचन के तथा सात काया के। समवायांग में प्रयोग के 13 भेद मिलते हैं। यहां काया के पांच ही प्रयोग उल्लिखित हैं। आहारक काय प्रयोग और आहारक मिश्र कायप्रयोग गृहीत नहीं है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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