________________ अनुवाद-जी-१ 281 केवलज्ञानी सब आत्मप्रदेशों से आकाशगत सत् पदार्थों को युगपत्' (एक साथ) जानता-देखता है। यह निष्कर्ष प्राप्त कथन है। जो 'संभिण्ण' विशेषण कहा गया है, उसकी व्याख्या आगे है। 94. केवलज्ञान लोक और अलोक को तथा पूर्व आदि सब दिशाओं में द्रव्य, क्षेत्र और काल से सब पदार्थों को सर्व आत्म-प्रदेशों से पूर्णतः जानता-देखता है। 95. भाव से जो पदार्थ नहीं हैं, उनको वह नहीं देखता। जिनका अभाव नहीं है, उन पदार्थों को जानतादेखता है। 96. जो सभी द्रव्यों, द्रव्य के परिणामों और उनके भावों की विज्ञप्ति का कारण है, अनंत, शाश्वत, अव्याबाध और एक ही प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। 1. प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त जुगवं-युगपद् शब्द कुछ विमर्श की अपेक्षा रखता है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आगमिक परम्परा के अनुसार केवली के ज्ञान एवं दर्शन में क्रमवाद के पक्षधर हैं। विशेषणवती ग्रंथ (गा. 153249) में उन्होंने विस्तार से अनेक हेतुओं के द्वारा इस विषय पर चर्चा की है। उन्होंने अनेक पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष भी प्रस्तुत किए हैं। यहां ग्रंथकार द्वारा प्रयुक्त युगपद् शब्द का प्रयोग केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् होता है, इस अर्थ में नहीं है। डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार यहां इसका अर्थ सभी आत्मप्रदेशों से एक साथ जानना और देखना होना चाहिए क्योंकि केवली का ज्ञान इंद्रिय-सापेक्ष न होकर सभी आत्मप्रदेश सापेक्ष होता है अर्थात् सभी आत्म-प्रदेशों से एक साथ होता है। केवली में जानने और देखने की क्षमता का प्रकटीकरण एक साथ होता है क्योंकि ज्ञानावरण और दर्शनावरण का क्षय एक साथ ही होता है किन्तु ज्ञानोपयोग और दर्शनापयोग एक साथ नहीं होता, यह आगमिक परम्परा है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि केवली में सत्ता या अस्तित्व की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन अभिन्न अर्थात् युगपद् हैं लेकिन उपयोग की अपेक्षा एक समय में एक ही उपयोग सम्भव है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में तीन अभिमत मिलते हैं-१. क्रमवाद 2. युगपद्वाद 3. अभेदवाद। आवश्यक नियुक्ति में केवलज्ञान और केवलदर्शन को युगपद् स्वीकार नहीं किया है। युगपद्वाद के प्रवक्ता मल्लवादी तथा अभेदवाद के प्रवक्ता सिद्धसेन दिवाकर हैं। अभेदवाद के माध्यम से आचार्य सिद्धसेन एक ओर केवलज्ञान के सादि-अनंत होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि करना चाहते थे तो दूसरी ओर क्रमवाद . और युगपद्वाद की विरोधी धारणाओं का समन्वय भी करना चाहते थे। उपाध्याय यशोविजयजी ने इन तीनों वादों का नय की दृष्टि से समन्वय किया है। इस विषय में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से विशद चिन्तन प्रस्तुत किया है। १.जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ. 234 / 2. देखें नंदी का टिप्पण पृ.७५,७६ / 2. पर्याय अनंत होने से केवलज्ञान अनंत है। सदा उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं होता इसलिए अप्रतिपाती है। आवरण की पूर्ण शद्धि के कारण वह एक प्रकार का है। बहत्कल्पभाष्य की टीका में ज्ञान की अनंत पर्यायों को सहेतुक स्पष्ट किया है। एक-एक आकाशप्रदेश पर अनंत अगुरुलघु पर्याय हैं। भिन्न-भिन्न स्वभाव (ज्ञान-भेद) से भिन्न-भिन्न पर्यायों को जाना जाता है। इसलिए सर्व आकाशप्रदेशों से ज्ञान के पर्यव अनंत गुणा हैं। केवलज्ञान उन सबको जानता है इसलिए वह अनंत है। १.विभा 828 पज्जायओ अणंतं,सासयमिट्ठ सदोवओगाओ।अव्वयओऽपडिवाई,एगविहं सव्वसुद्धीए॥ 2. बृभा 64 टी प. 22 //