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________________ 280 जीतकल्प सभाष्य 87. जैसे साधारण व्यक्ति भी स्पष्ट रूप से चेहरे के संकेत आदि से मानसिक भावों को जान लेता है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान मनोवर्गणा के पुद्गलों से मानसिक भावों को प्रकाशित करता है। 88. मन:पर्यवज्ञान जन अर्थात् पर्याप्तक संज्ञी जीवों के मन द्वारा चिन्तित अर्थ को प्रकट करता है। यह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित होता है। यह चारित्र सम्पन्न साधु के गुण प्रत्ययिक होता है. (अर्थात् इसकी . उपलब्धि साधना जन्य गुणों के कारण होती है)। 89. जो श्रुतांगविद् (द्वादशांगविद्) और धीर मुनि ऋजुमति अथवा विपुलमति मनःपर्यवज्ञान में वर्तमान हैं, उन मन:पर्यवज्ञानी मुनियों को व्यवहार शोधिकर जानना चाहिए। 90. जिस प्रकार पंकिल जल क्रमशः स्वच्छ होता है, वैसे ही जीव भी आवरण के क्षय होने पर क्रमशः केवलज्ञान तक की विशोधि को प्राप्त करता है। 91. जो सम्पूर्ण रूप से लोक और अलोक को नियमत: देखता है, वह केवलज्ञान' है। भूत, भविष्य या वर्तमान का ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसे वह न जानता हो। 92, 93. जैसे सूर्य आकाशगत कृत (निर्मित) पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है, वैसे ही 1. व्यक्ति जब चिन्तन करता है तो मनोवर्गणा के पुद्गल उसी रूप में आकार ग्रहण कर लेते हैं। उसके आधार पर मनःपर्यवज्ञानी दूसरों के मानसिक चिन्तन को जान लेता है। 2. नंदी सूत्र में मनःपर्यव ज्ञानी की नौ योग्यताओं का उल्लेख है --1. ऋद्धिप्राप्त 2. अप्रमत्त संयत 3. संयत 4. सम्यग्दृष्टि 5. पर्याप्तक 6. संख्येयवर्षायुष्क 7. कर्मभूमिज 8. गर्भज मनुष्य 9. मनुष्य / इन विशेषताओं का तात्पर्य है कि अवधिज्ञान ऋद्धिप्राप्त, अप्रमत्त संयत, सम्यग् दृष्टि, पर्याप्तक, संख्यात वर्ष आयुष्य वाले कर्मभूमि में उत्पन्न गर्भज मनुष्य को होता है। १.नंदी 23 / 3. नंदी की हारिभद्रीय टीका में केवलज्ञान के लिए पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है 1. एक-केवलज्ञान मति, श्रुत आदि ज्ञानों से निरपेक्ष होता है। . 2. शुद्ध-आवरण एवं मल से रहित। 3. सकल-केवलज्ञान अखण्ड और विभाग रहित होता है। आवरण के कारण ज्ञान विकल होता है, आवरण क्षीण होने पर वह स्वभावतः सकल होता है। 4. असाधारण-दूसरे ज्ञानों से विशिष्ट। 5. अनन्त-अनन्त ज्ञेय को जानने के कारण अनन्त / अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद कभी लुप्त नहीं होता इसलिए वह अनन्त है। बृभा में केवलज्ञान के ये लक्षण प्राप्त हैं -एक, अनिवारित व्यापार, अनंत, अविकल्पित और नियत। 1. नंदीहाटी पृ. 19; केवलम्-असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षम्। शुद्धं वा केवलम् आवरणमलकलंङ्काकरहितम्। सकलं वा केवलम्, तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः। असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशमिति हृदयम्। ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं वा केवलम्। २.बृभा 38 टी पृ.१५; दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलन्नाणं। अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं नियतं॥
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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