________________ अनुवाद-जी-१ 279 82. काल की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्टतः भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य -दोनों कालों को जानता-देखता है। 83. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी संज्ञी जीवों के मन्यमान भावों को जानता-देखता है। विपुलमति उसी को अधिक विशुद्ध और निर्मल रूप में जानता-देखता है। 84, 85. भाव से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनंत भावों को जानता-देखता है। वह उन सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिक विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता-देखता है। मनःपर्यव ज्ञान के ये चार भेद हैं। 86. मन:पर्यव ज्ञान संज्ञी जीवों के मन्यमान मनोवर्गणा के पुद्गलों से मानसिक भावों को जानता-देखता 1. आचार्य हरिभद्र ने नंदी टीका में एक प्रश्न उठाया है कि मन:पर्यव दर्शन स्वतंत्र रूप से प्रतिपादित नहीं है फिर ‘पश्यति' का प्रयोग क्यों हुआ है? इस प्रश्न का समाधान देते हुए टीकाकार कहते हैं कि कोई व्यक्ति घट का चिन्तन कर रहा है तो मनःपर्यवुज्ञानी उसके मनोद्रव्य को साक्षात् जानता है और मानस अचक्षुदर्शन से उन्हीं का विकल्प करता है अतः मानस अचक्षुदर्शन की अपेक्षा 'पासइ' शब्द का प्रयोग हुआ है। विशेष उपयोग की अपेक्षा से वह जानता है और सामान्य अर्थोपयोग की अपेक्षा से देखता है। इस ज्ञान की विशेषता यह है कि इसमें क्षयोपशम की पटुता होती है अतः वह मन द्रव्य के विशेष पर्यायों को ग्रहण करता है। विशेष का ग्राहक ज्ञान होता है, दर्शन नहीं अतः मनःपर्यव दर्शन नहीं होता। कुछ आधुनिक विद्वान् ‘जाणइ पासइ' इन दो क्रियापदों को भाषा शैली का प्रतीक मानते हैं, जैसे-पण्णवेमि परूवेमि.....आदि क्रियापद समानार्थ के रूप में प्रयुक्त होते हैं, वैसे ही जाणइ पासइ' समानार्थक क्रियाएं हैं, ज्ञान और दर्शन के वाचक नहीं। १.नंदीहाटी पृ. 122%; परस्य घटादिकमर्थं चिन्तयतः साक्षादेव मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि तावज्जानाति, तान्येव च मानसेनाचक्षुदर्शनेन विकल्पयति अतो मानसाचक्षुर्दर्शनापेक्षया पश्यतीत्युच्यते। 2. आवमटी प.८२। 3. इस विषय में विस्तार हेतु देखें ज्ञान-मीमांसा पृ.३३८,३३९। 2. मनःपर्यवज्ञानी तिर्यक् लोक में संज्ञी जीवों द्वारा गृहीत मन रूप में परिणत द्रव्य मन की अनंत पर्यायों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को जानता-देखता है। वह द्रव्य मन से प्रकाशित वस्तु घट-पट आदि को अनुमान से जानता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनःपर्यवज्ञानी चिन्तित पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं देखता अपितु अनुमान से देखता है इसीलिए उसकी पश्यत्ता बताई गई है। यद्यपि मन का आलम्बन मूर्त्त-अमर्त्त दोनों पदार्थ होते हैं लेकिन छद्मस्थ अमर्त को साक्षात् नहीं देख सकता। मन:पर्यवज्ञान का विषय मन द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं, इस विषय में जैन परम्परा में मत-विभेद है। नियुक्तिकार ने प्रथम पक्ष मान्य किया है। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से चिन्तन प्रस्तुत किया है। देखे नंदी सूत्र 23 का टिप्पण पृ. 24 / १.विभा 813, 814; मुणइ मणोदव्वाई, नरलोए सो मणिज्जमाणाई। काले भूय-भविस्से, पलियाऽसंखिन्जभागम्मि॥ दव्यमणोपज्जाए, जाणइ पासइ य तग्गएणंते। तेणावभासिए उण, जाणइ बझेऽणुमाणेणं॥ 2. नंदीचू पृ. 24; मणितमत्थं पुण पच्चक्खंण पेक्खति,जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा सो य छदुमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो पासणता भणिता।