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________________ 278 जीतकल्प सभाष्य 73. अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उसके बहुत विकल्प हो जाते हैं। 74. मन:पर्यव ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का है-ऋजुमति 2. विमलमति। दोनों द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार-चार प्रकार के होते हैं। 75. द्रव्य से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान मनोवर्गणा के अनंतप्रदेशी अनंत स्कन्धों को जानता-देखता है। विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान उसी को और अधिक उज्ज्वलतर और विशुद्धतर जानता-देखता है। 7677 क्षेत्र से ऋजमति मन:पर्यवजानी अधोलोक में रत्नप्रभा पथ्वी के ऊर्ध्ववर्ती क्षल्लकप्रतर से अधोवर्ती क्षुल्लकप्रतर तक वर्तमान समनस्क जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति अवधिज्ञानी इससे अधिक विपुल, विशुद्ध और उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता-देखता है। . 78. ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान ऊर्ध्वलोक में ज्योतिष्चक्र के ऊपरी भाग तक जानता-देखता है, विपुलमति उसी क्षेत्र को अधिक उज्ज्वलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है। 79, 80. तिर्यक् लोक में ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी दो समुद्र (लवणोदधि तथा कालोदधि) तथा ढ़ाई द्वीप (जंबूद्वीप, धातकीखंड तथा पुष्करार्ध) में वर्तमान पर्याप्तक समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों के मन्यमान मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी उन्हीं को अधिक विमल और उज्ज्वलतर जानतादेखता है। 81. विपुलमति मनःपर्यव ज्ञानी की यह विशेषता है कि वह तिर्यक्, ऊर्ध्व और अध:लोक में ऋजुमति मन:पर्यव ज्ञानी की अपेक्षा अढ़ाई अंगुल अधिक क्षेत्र को उज्ज्वलतर और शुद्ध रूप में जानता-देखता है। 1. ऋजुमति की व्याख्या करते हुए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते हैं कि ऋजु का अर्थ है -सामान्य / जो सामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है। यह विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है। वह देश, काल आदि से सम्बद्ध घट की अन्य अनेक पर्यायों को नहीं जानता।' 1. विभा 784; रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमई मणोनाणं। पायं विसेसविमुहं, घडमेत्तं चिंतियं मुणए॥ २.यहां विपुलमति के स्थान पर विमलमति शब्द का प्रयोग हुआ है। विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। किसी व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया। वह घड़ा स्वर्णनिर्मित है, पाटलिपुत्र में बना है, आज ही बना है, आकार में बृहद् है, कक्ष में स्थित है, फल से आच्छादित है-इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। १.नंदीमटी प.१०८ ; घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः पाडलिपुत्रकोऽद्यतनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः। 3. दिगम्बर आचार्य मनःपर्यव ज्ञान की उत्पत्ति में दो कर्मों के क्षयोपशम को मुख्य मानते हैं -1. वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम 2. मन:पर्यव ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम / 1. ससि 1/23/218, तवा 1/23 पृ.८४।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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