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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 47 आगाढ़ परिताप देने पर आचाम्ल तथा प्राणव्यपरोपण होने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था। पंचेन्द्रिय का घट्टन होने पर एकासन, अनागाढ़ परितापन देने पर आचाम्ल, आगाढ़ परितापन देने पर उपवास तथा प्राणव्यपरोपण होने पर पंचकल्याणक' का प्रायश्चित्त विहित था।' गच्छभेद से जिस प्रकार जीत व्यवहार के प्रायश्चित्त में भिन्नता होती है, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना आदि के आधार पर भी जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त-दान में तरतमता रहती है। उदाहरणार्थ ग्लान को प्रायश्चित्त देने के निम्न विकल्प हैं * रोगी को अल्प प्रायश्चित्त या अशक्तता होने पर प्रायश्चित्त न दिया जाए। * जितनी वह तपस्या कर सके, उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाए। * अथवा जब वह नीरोग या हृष्ट हो जाए, तब उससे प्रायश्चित्त स्वरूप तप कराया जाए। अन्य परम्पराओं में व्यवहार बौद्ध परम्परा में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु दीघनिकाय के 'महापरिनिब्बान सुत्त' में चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है 1. बुद्ध द्वारा प्रवर्तित। 2. संघ द्वारा प्रवर्तित। 3. महान् भिक्षुओं द्वारा प्रवर्तित। 4. किसी विहार के महान् आचार्य द्वारा प्रवर्तित / इन चारों महापदेशों में सूत्र और विनय से संगत, संघवचन और भिक्षुवचन को ही ग्राह्य बताया गया है और उससे भिन्न को अग्राह्य / जैन दर्शन में जो स्थान आगम और श्रुत व्यवहार का है, बौद्ध दर्शन में वही स्थान सूत्र और विनय से संगत संघवचन और भिक्षुवचन का है। ब्राह्मण परम्परा में भी पांच व्यवहार के संवादी निम्न तत्त्व मिलते हैं१. संपूर्ण वैदिकशास्त्र के आधार पर। 2. ऋषियों द्वारा प्रणीत स्मृति ग्रंथों के आधार पर। 3. श्रुति और स्मृति के धारक व्यक्तियों द्वारा। १.जीभा 684 / 4. जी 64 / 2. यहां पंचकल्याणक का तात्पर्य निर्विगय, परिमार्द्ध एकासन. 5. इसके विस्तार हेतु देखें 'तप प्रायश्चित्त में तरतमता' आयम्बिल, उपवास- तपस्या के इन पांच भेदों से है। भूमिका पृ. 145-49 / ३.जीभा 685, व्यभा 4540 / 6. अंगु. 8/18/10 महापदेससुत्त पृ. 178-81 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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