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________________ 46 जीतकल्प सभाष्य व्यवहार संवेगपरायण एवं दान्त आचार्य द्वारा आचीर्ण होता है, वह शोधिकर जीत है, फिर चाहे वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। जो पार्श्वस्थ और प्रमत्त संयत द्वारा आचीर्ण व्यवहार होता है, वह अशोधिकर जीत है, फिर चाहे वह अनेक व्यक्तियों द्वारा भी आचीर्ण क्यों न हो। जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त में भिन्नता गच्छभेद से सामान्य जीत व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता था। इसे समझाने के लिए व्यवहारभाष्यकार ने कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं कुछ आचार्यों के गण में नवकारसी या पोरसी न करने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था। आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकासन आदि का विधान था। कुछ गण में आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विगय, दो कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहरं, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा पूरा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था।' जीतकल्पभाष्य के अनुसार आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमार्ध, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकासन, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उपधान तप विषयक भिन्न-भिन्न गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं थीं। वे सभी अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा से प्राप्त होने के कारण अविरुद्ध थीं। नागिलकुलवर्ती साधुओं के आचारांग से अनुत्तरौपपातिक तक की आगम-वाचना में उपधानतप के रूप में आचाम्ल नहीं, केवल निर्विगय तप का विधान था। आचार्य की आज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर उन आगमों को पढ़ते हुए भी विगय का उपयोग किया जा सकता था। कुछ परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को आगाढ़योग के अन्तर्गत तथा कुछ परम्पराओं में अनागाढ़योग के अन्तर्गत माना जाता था। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के घट्टन, परितापन, अपद्रावण आदि के विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त निर्धारित थे। पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों के संघट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परितापन देने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने पर एकासन तथा प्राणव्यपरोपण होने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था।' विकलेन्द्रिय जीव एवं अनंतकाय जीवों का घट्टन होने पर पुरिमार्ध, अनागाढ़ परिताप देने पर एकासन, 1. व्यभा 4547-49, जीभा 692-94 / 2. व्यभा 12 टी प.८॥ ३.व्यभा 11 टोप.८॥ ४.जीभा 1759,1760 / 5. व्यभा 12 टी प.८। 6. व्यभा 4538-41, जीभा 683-86 / ७.जीमा 63
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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