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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श परम्परा होती है। यह प्रियधर्मा और पापभीरु व्यक्ति के द्वारा आचीर्ण होता है। भाष्यकार के समय में जीतकल्प के प्रवर्तन विषयक दो परम्पराएं प्रचलित थीं। एक परम्परा के अनुसार आचार्य जंबू के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन हुआ। दूसरे मत के अनुसार चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन तथा आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया। उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन ही शेष रहा। इन मान्यताओं का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हैं। चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर मन:पर्यवज्ञान, परमावधि, पुलाकलब्धि, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणी, उपशम श्रेणी, जिनकल्प, संयमत्रिक (अंतिम तीन संयम), केवली, सिद्धि-ये बारह अवस्थाएं विच्छिन्न हुईं किन्तु व्यवहार चतुष्क का लोप नहीं हुआ। चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान तथा अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का उपयोगइन तीन वस्तुओं का विच्छेद हो गया। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी के कर्ता सिद्धसेनगणि के अनुसार वर्तमान में अधिकांश विशोधि जीतव्यवहार के आधार पर होती है। जीतव्यवहार के भेद प्रायश्चित्त के आधार पर जीत व्यवहार के दो भेद हैं -सावध और निरवद्य / व्यवहार का संबंध सावध जीत से नहीं अपितु निरवद्य जीत से है। अपराध की विशुद्धि के लिए शरीर पर राख का लेप करना, कारागृह में बंदी करना, हड्डियों की माला पहनाना, गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाना, उदर से रेंगने का दण्ड देना -ये सब सावद्य जीत हैं। आलोचना आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त देना निरवद्य जीत है। कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्था प्रसंग (दोषों की पुनरावृत्ति) के निवारण हेतु सावद्य जीत का प्रयोग भी किया जाता था। सावध जीत का प्रयोग उस व्यक्ति पर किया जाता था, जो बार-बार दोषसेवी, सर्वथा निर्दयी तथा प्रवचन से निरपेक्ष होता था। जो संविग्न, प्रियधर्मी, अप्रमत्त, पापभीरु होता था, उसके द्वारा यदि प्रमादवश स्खलना हो जाती तो उसके प्रति निरवद्य जीत व्यवहार का प्रयोग विहित था।' प्रकारान्तर से भी जीतव्यवहार के दो भेद किए गए हैं-१. शोधिकरजीत 2. अशोधिकरजीत / जो १.जीभा 681 / २.व्यभा 4523-25 / ३.व्यभा 4526, 4527 / ४.व्यभा 4528 // 5. त 9/22 भाटी पृ. 252 ; सम्प्रति पंचमव्यवहारप्रमाणेण ___यतयो भूयसा विशुद्धिमाचरंति। ६.जीभा 687 / 7. जीभा 689-91, व्यभा 4544-46 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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