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________________ 44 जीतकल्प सभाष्य पांच व्यवहारों में जीतकल्प सबसे अधिक प्रचलित रहा अतः भिन्न-भिन्न आचार्यों ने जीतकल्प की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की हैं। उन परिभाषाओं में कहीं-कहीं शाब्दिक अंतर है, उन सब परिभाषाओं को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है * जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार किसी आचार्य द्वारा प्रवर्तित होता है तथा महान् आचार्य जिसका अनुवर्तन करते हैं, वह जीतव्यवहार है।' * जो प्रायश्चित्त जिस आचार्य के गण की परम्परा से अविरुद्ध है, जो पूर्व आचार्य की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, वह जीतव्यवहार है। * अमुक आचार्य ने, अमुक कारण उत्पन्न होने पर, अमुक पुरुष को अमुक प्रकार.से.प्रायश्चित्त दिया, अन्य आचार्य द्वारा वैसी ही स्थिति में वैसा ही प्रयोग करना जीतव्यवहार है। इसी बात को जीतकल्प चूर्णि में इस भाषा में कहा है कि गच्छ में किसी कारण से जो सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त का प्रवर्तन हुआ, बहुतों के द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन हुआ, यह जीतव्यवहार है। * प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठभाव से जो निरवद्य आचरण किया जाता है, गीतार्थ के द्वारा उसका निवारण नहीं किया जाता अपितु उसके द्वारा जो अनुमत-सम्मत और आचीर्ण होता है, वह जीतकल्प है। * पूर्वाचार्यों ने जिन अपराधों की शोधि अत्यधिक तपस्या के आधार पर की, उन्हीं अपराधों की विशोधि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चिन्तन करके तथा संहनन आदि की हानि को लक्ष्य में रखकर गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रवर्तित समुचित तप रूप प्रायश्चित्त जीतव्यवहार है। जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि से रहित है, वह परम्परा से प्राप्त जीत व्यवहार का प्रयोग करता है। जीत व्यवहार के मूल में आगम आदि कोई व्यवहार नहीं, अपितु समय की सूझ एवं 1. जीभा 675, व्यभा 4521 / 2. व्यभा 12, जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं / जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ।। 3. जीभा 679, व्यभा 4534 / 4. जीचू पृ.४ ; जो वा जम्मि गच्छे केणइ कारणेण सुयाइरित्तो पायच्छित्त-विसेसो पवत्तिओ अन्नेहिं य बहूहिं अणुवत्तिओ, न य पडिसिद्धो। ५.बृभा 4499; असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्ज। ण णिवारियमण्णेहिं, बहुमणुमयमेतमाइण्णं / / ६.जीचूवि. पृ. 38 ; जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत् समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते। ७.जीभा 678, व्यभा 4533 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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