________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श ___ उपर्युक्त गुणों से युक्त साधु की प्रमादवश मूलगुण अथवा उत्तरगुण विषयक स्खलना होने पर प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में कल्प, निशीथ तथा व्यवहार–तीनों के कुछ अर्थपदों की अवधारणा कर यथायोग्य प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।' धारणा व्यवहार का प्रयोक्ता मुनि भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्रों के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन करने वाला, धीर, दान्त, क्रोधादि से रहित, आलीन-ज्ञान आदि में लीन, प्रलीन एवं यतनायुक्त होता है। ऐसी विशेषताओं से युक्त मुनि द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है। जीत व्यवहार यह पांचवां व्यवहार है। इसका महत्त्व सार्वकालिक है। जीतव्यवहार प्रायश्चित्त का प्रवर्तन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, शरीर-संहनन, धृतिबल आदि के आधार पर किया गया। व्यवहार भाष्यकार ने इसके तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है-१. बहुजनआचीर्ण, 2. जीत, 3. उचित / चूर्णिकार सिद्धसेनगणि के अनुसार भी इसके तीन एकार्थक हैं-जीत, करणीय एवं आचरणीय। नंदी टीका में इसके पांच एकार्थक प्राप्त हैं -जीत, मर्यादा, व्यवस्था, स्थिति एवं कल्प।' चूर्णिकार के अनुसार ब्राह्मण परम्परा में भी जीवघात होने पर प्रायश्चित्त का विधान है किन्तु उनकी परम्परा में एकेन्द्रिय आदि प्राणी के संघट्टन, परितापन या अपद्रावण आदि होने पर प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। निर्ग्रन्थ शासन में जीतव्यवहार विशोधि में विशेष रूप से निमित्तभूत बनता है। जिस प्रकार पलाश, क्षार एवं पानी आदि के द्वारा वस्त्र के मल को दूर किया जाता है, वैसे ही कर्ममल से मलिन जीव की अतिचार-विशुद्धि में जीतव्यवहार द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का विशेष महत्त्व है। प्रायश्चित्त-दान का यह भेद अन्यत्र किसी भी धर्म-परम्परा में उल्लिखित नहीं है। 1. जीभा 660-63 / 7. नंदीहाटी.पृ.११; जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प 2. जीभा 664-67, व्यभा 4512-14 / इति पर्यायाः। ३.(क) उशांटी प.६३; त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्य। ८.जीचू पृ.२ अन्ने वि मरुयादीया पायच्छित्तं देंति थूलबुद्धिणो (ख) जीच प.४;जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं। जीवघायम्मि कत्थइ सामन्नेण ण पुण संघट्टण४,जीचू पृ.४;सो पुण दव्वखेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाणु- परितावणोद्दवण-भेएण-सव्वेसिमेगिंदियाईणं तस्स वत्तिं सरीरसंघयणधीबलपरिहाणिं वावेक्खिऊण तहा पज्जवसाणाणं दाउं जाणन्ति / उवएसो वा तेसिं समए एरिसो . पायच्छित्तदाणं जीयं। नत्थि। इह पुण सासणे सव्वमत्थि त्ति काउं विसेसेण सोहणं ५.व्यभा 9; बहुजणमाइण्णं पुण, जीतं उचियं ति एगटुं। भण्णइ / जहा य पलास-खारोदगाइ वत्थमलस्स सोहणं ६.जीचूप.४ जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति तहा कम्ममलमइलियस्स जीवस्स जीय-ववहारनिद्दिटुं वाएगहुँ। पायच्छित्तं। ....न अण्णत्थ एरिसं ति जं भणियं होइ।