________________ 42 जीतकल्प सभाष्य अनुसार श्रुत व्यवहार और धारणा व्यवहार में इतना ही अंतर है कि श्रुत व्यवहार के एक अंश का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। भाष्यकार ने धारणा के चार एकार्थकों का उल्लेख किया है। ये सभी धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं - 1. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को विपुलता से धारण करना। 2. विधारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत विशिष्ट अर्थपदों को विविध रूप से स्मृति में धारण करना। ३.संधारणा-धारण किए हए अर्थपदों को आत्मसात करना। 4. संप्रधारणा–सम्यक् रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। ग्रंथकार ने धारणा व्यवहार को विविध रूपों में परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं धारणा व्यवहार के बारे में प्रचलित उस समय की विविध अवधारणाओं एवं अवस्थाओं को प्रकट करने वाली हैं- . किसी गीतार्थ संविग्न आचार्य ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना के आधार पर दिये जाने वाले प्रायश्चित्त को देखा अथवा किसी को आलोचना-शुद्धि करते देखा, उसको उसी प्रकार धारण करके वैसी परिस्थिति में वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।' जो शिष्य सेवा कार्य में नियुक्त है, देशाटन करने वाला है, दुर्मेधा या अल्पमेधा के कारण छेदसूत्रों के सम्पूर्ण अर्थपदों को धारण करने में समर्थ नहीं है, आचार्य उस पर अनुग्रह करके कुछ उद्धृत अर्थपद सिखाते हैं, छेदसूत्र के अर्थ का अंशतः धारक वह मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, वह धारणा व्यवहार है।' आचार्य मलयगिरि ने वैयावृत्त्यकर, गच्छ पर उपग्रह करने वाला, स्पर्धकस्वामी (संघाटक नायक), देशदर्शन में आचार्य का सहयोगी तथा संविग्न-इन विशेषताओं का उल्लेख किया है। धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे मुनि पर किया जाता है, इसकी निम्न कसौटियां बताई गयी हैं - . प्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन एवं श्रमण संघ का यश चाहता है। अनुग्रहविशारद-जो दीयमान प्रायश्चित्त या व्यवहार को अनुग्रह मानता है। तपस्वी–जो विविध तप में संलग्न है। सुश्रुतबहुश्रुत-जिसको आचारांग श्रुत विस्मृत नहीं होता अथवा जो बहुश्रुत होने पर भी श्रुत के ___ उपदेश के अनुसार चलता है। विशिष्टवाक्सिद्धियुक्त-विनय एवं औचित्य से युक्त वाक्शुद्धि वाला। १.जीचू पृ.४; सुयववहारेगदेसो धारणाववहारो। २.जीभा 655-58 / 3. जीभा 668-70, व्यभा 4515-17 / 4. जीभा 672, 673, व्यभा 4518, 4519 / 5. व्यभा 9 मटी प.००००००७। 6. व्यभा 4508-10 /