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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श के पास जाने में असमर्थ हो, उस स्थिति में शोधि का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को दूरस्थित शोधिकारक आचार्य के पास भेजकर शोधि की प्रार्थना करता है। तब आचार्य परीक्षा करके अपने आज्ञापरिणामक, धारणाकुशल तथा सूत्रार्थ के ज्ञाता शिष्य को उनके पास भेजते हैं। आचार्य द्वारा प्रेषित वह धारणा कुशल शिष्य आलोचक के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र सम्बन्धी अतिचारों को सम्यक् प्रकार से सुनता है तथा दर्प विषयक और कल्प विषयक प्रतिसेवना को अच्छी तरह धारण करता है तथा आलोचक की अर्हता, संयत या गृहस्थ पर्याय का कालमान, शारीरिक एवं मानसिक बल तथा क्षेत्र विषयक बातें आलोचक आचार्य से ज्ञात कर स्वयं उसका परीक्षण कर अपने देश में लौट आता है। वह अपने गुरु के पास जाकर उसी क्रम में सब बातें गुरु को निवेदित करता है, जिस क्रम से उसने तथ्यों का अवधारण किया था। तब व्यवहार-विधिज्ञ आलोचनाचार्य कल्प और व्यवहार दोनों छेदसूत्रों के आलोक में पौर्वापर्य का आलोचन कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सही अवगति करते हैं। पुनः उसी शिष्य को आदेश देते हैं –'तुम जाओ और उस विशोधिकर्ता मुनि या आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित करके आ जाओ। इस प्रकार आचार्य के वचनानुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है।' - आज्ञा व्यवहार की एक दूसरी व्याख्या भी मिलती है-दो गीतार्थ आचार्य गमन करने में असमर्थ हैं। दोनों दूर प्रदेशों में स्थित हैं। कारणवश वे एक दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में यदि उन्हें प्रायश्चित्त विषयक परामर्श लेना हो तो गीतार्थ शिष्य न होने पर अगीतार्थ शिष्य को जो धारणा में कुशल है, उसे गूढ़ पदों में अपने अतिचारों को निगूहित कर दूर देश स्थित आचार्य के पास भेजते हैं। आगंतुक शिष्य के निवेदन पर आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धृति, शारीरिक बल आदि का विचार करके स्वयं वहां आ जाते हैं अन्यथा गीतार्थ शिष्य के न मिलने पर रहस्ययुक्त पदों को धारण करने वाले शिष्य के साथ गृह पदों में अतिचार विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त बताते हैं, यह आज्ञा व्यवहार है। गूढ़ पदों में निहित प्रश्न एवं उत्तर को भाष्यकार ने विस्तार से प्रस्तुत किया है। धारणा व्यवहार व्यवहार का चौथा प्रकार है-धारणा। मतिज्ञान का चौथा भेद भी धारणा है। संभवतः उसी आधार पर व्यवहार का एक भेद धारणा रखा गया है। धारणा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के सदृश है। चूर्णिकार के 1. परिणामक अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य के जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है, उसके 24 प्रकार हैं, दृष्टान्तं हेतु देखें जीभा 571-80, परि. 2, कथा सं.५४। देखें भूमिका में दर्प एवं कल्प प्रतिसेवना पृ. 68-71 / २.जीभा 566-70 / ४.जीभा 636-38, 653 / ३.जो अकारण की जाती है, वह दर्प प्रतिसेवना है। उसके 5. व्यभा 9 मटी. प.६, जीचू पृ. 2 / दस प्रकार हैं। कारण उपस्थित होने पर जो प्रतिसेवना की ६.जीभा 618-52 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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