SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 40 जीतकल्प सभाष्य सब नयों से जानते हैं, वैसे ही दूसरों के भावों को भी श्रुतबल से जानकर उसकी शोधि के लिए प्रायश्चित्त देते हैं। भाष्यकार ने इस बात को एक रूपक से स्पष्ट किया है। जैसे चक्रवर्ती का प्रासाद वर्धकि रत्न द्वारा निर्मित होता है, उसे देखकर सामान्य राजा भी अपने वर्धकियों से प्रासाद का निर्माण करवाते हैं। उनके प्रासाद की शोभा उतनी नहीं होती फिर भी वे प्रासाद कहलाते हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी की भांति परोक्षज्ञानी भी व्यवहार करते हैं।' श्रुत व्यवहार श्रुत व्यवहार में श्रुत का अनुवर्तन होता है। जो आचार्य या मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका है और उसके अर्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा दोनों ग्रंथों की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। टीकाकार के अनुसार कुल, गण आदि में करणीय-अकरणीय का प्रसंग उपस्थित होने पर पूर्वो से कल्प और व्यवहार का नि!हण किया गया। इन दोनों सूत्रों का निमज्जन करके, व्यवहार-विधि के सूत्र का स्पष्ट उच्चारण कर, उनके अर्थ का अवगाहन कर जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, वह श्रुतव्यवहार है। जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पूर्वधर (1 से 8 पूर्व), 11 अंग के धारक, कल्प, व्यवहार तथा अवशिष्ट श्रुत के अर्थधारक मुनि श्रुतव्यवहार का प्रयोग करते हैं। जिस प्रकार कुशल चिकित्सक रोग के अनुसार औषध देता है, अधिक या कम नहीं, वैसे ही आगमव्यवहार एवं श्रुतव्यवहार का प्रयोग करने वाले जितने प्रायश्चित्त से व्यक्ति की शुद्धि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। आज्ञा व्यवहार भक्त-प्रत्याख्यान में संलग्न, विशोधि एवं शल्योद्धरण का इच्छुक आचार्य या मुनि दूरस्थित छत्तीस गुण सम्पन्न आचार्य से आलोचना करना चाहता है। ऐसी अवस्था में आज्ञा व्यवहार की प्रयोजनीयता होती है। आज्ञा व्यवहार को व्याख्यायित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि विशोधि का इच्छुक आचार्य या मुनि जब शोधिकारक आचार्य के समीप जाने में असमर्थ हो तथा शोधिकारक आचार्य भी जब शोधिकर्ता १.जीभा 123, व्यभा 4048 / २.जीभा 269-73 / 3. जीचू पृ. 4; आणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो। 4. जीभा 561-64, व्यभा 4432-35 / ---५.व्यभा 4436 मटी.प.८१; कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद् भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं नियूढं तदेवानमज्जननिपुणतरार्थे परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन् व्यवहारविधिं यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थे निर्दिशन् यः / प्रयुंक्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः। 6. नवपूर्वी तक आगमव्यवहारी होते हैं। ७.जीचू पृ.२ ;सुयववहारो पुण अवसेसपुव्वी एक्कारसंगिणो आकप्पववहारा अवसेससुए य अहिगयसुत्तत्था सुयववहारिणो त्ति। ८.व्यभा 326 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy