SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 39 नवपूर्वी एवं गंधहस्ती आचार्य आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं। जो आगमव्यवहारी गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञानी होते हैं, वे अवधिज्ञान से तथा जो ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी होते हैं, वे मनःपर्यवज्ञान से व्यवहार की शोधि करते हैं। केवलज्ञानी केवलज्ञान से व्यवहार करते हैं।' यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि चतुर्दशपूर्वी आदि श्रुत से व्यवहार करते हैं तो फिर उन्हें आगमव्यवहारी क्यों कहा गया? रूपक के माध्यम से इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चतुर्दशपूर्वी आदि प्रत्यक्ष आगम के सदृश हैं इसलिए इन्हें आगम व्यवहार के अन्तर्गत गिना है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है, वैसे ही आगम सदृश होने के कारण पूर्वो के ज्ञाता भी आगम व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि पूर्वो का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट अवबोधक होता है, अतिशायी ज्ञान होने के कारण इसे आगम व्यवहार के अन्तर्गत लिया गया है, जैसे केवली सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थों को जानते हैं, वैसे श्रुतज्ञानी भी इनको श्रुत के बल से जान लेते हैं अतः चतुर्दशपूर्वी आदि को आगम व्यवहारी के अन्तर्गत रखा है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी प्रतिसेवना करने पर राग-द्वेष विषयक हानि-वृद्धि के आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं। उपवास जितने प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना करने पर पांच दिन का प्रायश्चित्त दे सकते हैं तथा पांच दिन जितनी प्रतिसेवना करने वाले को उपवास का प्रायश्चित्त दे सकते हैं, वैसे ही चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि के आधार पर प्रायश्चित्त प्रदान करते हैं। एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी तो प्रतिसेवक के भावों को साक्षात् जानते हैं लेकिन चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्ष आगम व्यवहारी दूसरों के भावों को कैसे जानकर व्यवहार करते हैं? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने नालीधमक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे नालिका से पानी गिरने पर समय की अवगति होती है। नालिका द्वारा समय जानकर धमक शंख बजाकर दूसरों को भी समय की सूचना देता रहता है, वैसे ही परोक्षागम व्यवहारी भी दूसरों की शोधि और आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। वे आलोचक को पश्चात्ताप की उत्कटता, अनुत्कटता के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं, जैसे परोक्ष आगम व्यवहारी श्रुतबल से जीव, अजीव आदि की पर्यायों को १.जीभा 112, व्यभा 4037 / श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वा२.व्यभा 4032, 4033 / दागमव्यपदेश: केवलवदिति / 3. जीभा 108, व्यभा 4034 / ६.जीभा 114, व्यभा 4039 / 4. जीभा 110, व्यभा 4035, मटी प. 31 / 7. व्यभा 4040,4041 / 5. भटी प. 384 ; श्रुतं शेषमाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च ८.जीभा 121, 122, व्यभा 4046, 4047 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy