________________ जीतकल्प सभाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अक्ष का अर्थ आत्मा किया है अर्थात् जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष है। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय भी होता है, जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त इन्द्रिय आदि से होता है, वह परोक्ष है। प्रश्न उपस्थित होता है कि आगम व्यवहार में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण क्यों किया गया? इसका समाधान जीतकल्पभाष्य में प्राप्त होता है। भाष्यकार जिनभद्रगणि लिखते हैं कि प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी (चतुर्दशपूर्वी आदि) भी श्रोत्रेन्द्रिय से दूसरे की प्रतिसेवना सुनकर, चक्षु से दूसरे को अनाचार का सेवन करते देखकर, घ्राण द्वारा धूप आदि की गन्ध से चींटी आदि की विराधना जानकर, कंदादि को खाते देखकर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यंग आदि को जानकर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से व्यवहार का प्रयोग करते हैं अतः आगम व्यवहार के अन्तर्गत इंद्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण किया गया है। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का विस्तृत वर्णन जीतकल्पभाष्य में मिलता है। आगम व्यवहार का प्रयोग करने वाला अठारह वर्जनीय स्थानों का ज्ञाता, छत्तीस गुणों में कुशल', आचारवान् आदि गुणों से युक्त', आलोचना आदि दश प्रायश्चित्तों का ज्ञाता', आलोचना के दश दोषों का ज्ञायक', षट्स्थानपतित स्थानों को साक्षात् रूप से जानने वाला तथा राग-द्वेष रहित होता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक का प्रकाश नगण्य है, उसके समक्ष कोई दीपक के प्रकाश का प्रयोग नहीं करता, वैसे ही आगम व्यवहारी आगम व्यवहार का ही प्रयोग करते हैं, श्रुत आदि व्यवहार का नहीं। आगमव्यवहारी अतिशयज्ञानी होते हैं अत: वे प्रतिसेवी व्यक्ति के संक्लिष्ट, विशुद्ध एवं अवस्थित परिणामों को साक्षात् जान लेते हैं इसलिए वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से आलोचक की विशुद्धि हो सके। आगम व्यवहारी छ: हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं नौ पूर्वी। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी एवं अवधिज्ञानी आगमतः प्रत्यक्ष व्यवहारी हैं। चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, 1. जीभा 11; श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय, दोषनिर्घातनविनय आदि चार जीवो अक्खो तं पति, जं वट्टति तं तु होति पच्चक्खं। विनय-प्रतिपत्तियां होती हैं। ये आचार्य के छत्तीस गुण परतो पुण अक्खस्सा, वढूतं होति पारोक्खं / / कहलाते हैं। (देखें जीभा 160-241) २.जीभा 20-22 / ६.स्था 10/72, व्यभा 520 / 3. जीभा 23-108 / ७.स्था 10/73, व्यभा 4180 / 4. व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प-समाचरण, गृहिभाजन का ८.स्था 10/70, व्यभा 523 / प्रयोग, पर्यंक, भिक्षा के समय गृहस्थ के घर में बैठना, ९.व्यभा 3884 / स्नान, विभूषा–ये अठारह वर्जनीय स्थान हैं। (देखें व्यभा १०.जीचू पृ.४; आगमववहारी अइसइणो संकिलिस्समाणं 4074) विसुज्झमाणं अवट्ठियपरिणाम वा पच्चक्खमुवलभन्ति, 5. आचार्य की आचार, श्रुत आदि आठ सम्पदाओं के चार- तावइयं च से दिन्ति जावइएण विसुज्झइ / चार गुण होते हैं। उनके 32 प्रकार हैं तथा आचारविनय,