________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श जानते हैं कि भविष्य में ऐसा समय भी आएगा, जब आगम का विच्छेद हो जाएगा। जिस काल में जो व्यवहार विच्छिन्न हो, उस समय अव्यवच्छिन्न व्यवहार का यथाक्रम से प्रयोग किया जाता है। - इसी प्रकार क्षेत्र और काल के अनुसार जहां जो व्यवहार संभव हो, उसी का प्रयोग करना चाहिए अथवा जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था दी गई हो, उसी का व्यवहार करना चाहिए। संघ में व्यवहार के प्रयोग में और भी अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इन पांच प्रकार की उपसंपदाओं तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या का अवबोध कर संघ में व्यवहार करना चाहिए। . जैन आचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार नियम एवं प्रायश्चित्तों का विधान किया। इसीलिए नियम एवं प्रायश्चित्त-दान में कहीं रूढ़ता का वहन नहीं हुआ। मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर ही उन्होंने पांच व्यवहारों की प्रस्थापना की, ऐसा कहा जा सकता है। आगम व्यवहार जिसके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं, वह आगम है। ज्ञान पर आधारित होने के कारण प्रथम व्यवहार का नाम आगम व्यवहार है। ज्ञान और आगम दोनों एकार्थक हैं। कारण में कार्य का उपचार करने से जो ज्ञान के साधन हैं, वे भी आगम कहलाते हैं। आगम व्यवहार के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से प्रदर्शित किया जा सकता है आगम व्यवहार प्रत्यक्ष परोक्ष इन्द्रिय ... नोइन्द्रिय... चौदहपूर्वी दशपूर्वी नवपूर्वी पांच इन्द्रियों से होने वाला लपादि का ज्ञान अवधि, मनःपर्यव, केवल - - १.व्यमा 3885/ ___अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम्। २.(क) भटी प.३८५ ; यदा यस्मिन् अवसरे यत्र प्रयोजने वा 3. व्यभा 1692 / क्षेत्र वा यो य उचितस्तं तदाकाले तस्मिन् प्रयोजनादौ। ४.भटी.प.३८४: आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया अर्था (ज) व्यमा 3385 मटी प. 10 ; तत्रापि व्यवहारः क्षेत्र अनेनेत्यागम उच्यते। कालच प्राप्य यो यथा संभवति, तेन तथा व्यवहरणीयम्। ५.व्यभा 4036; नातं आगमियं ति य एगटुं। का क्षेत्र युगप्रधानाचार्यः या व्यवस्था व्यवस्थापिता तथा 6. जीभा 9, 10, 23 /