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________________ जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त व्यवहार। सचित्तादि वस्तु को लेकर जो व्यवहार होता है, वह आभवद् व्यवहार है तथा प्रतिसेवना का आचरण करने पर अपराधी के प्रति जो व्यवहार किया जाता है, वह प्रायश्चित्त व्यवहार कहलाता है। आभवद व्यवहार के पांच प्रकार हैं-१. क्षेत्र, 2. श्रुत, 3. सुख-दुःख, 4. मार्ग, 5. विनय। पंचकल्पभाष्य में आभवद् व्यवहार के भेद इस प्रकार मिलते हैं-१. सचित्त 2. अचित्त 3. मिश्र 4. क्षेत्रनिष्पन्न 5. काल-निष्पन्न। प्रायश्चित्त व्यवहार के आज्ञा, श्रुत आदि पांच भेद हैं। ग्रंथकार ने आगम आदि पांचों व्यवहारों को द्वादशांग का नवनीत कहा है, जिसका निर्वृहण चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु ने द्वादशांगी से किया। भाष्यकार ने व्यवहार का महत्त्व यहां तक बता दिया कि जिसके मुख में एक लाख जिह्वा हों, वह भी व्यवहार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रस्तुत नहीं कर सकता। ___ व्यवहार का मूल अर्थ है-करण अर्थात् न्याय के साधन / वे पांच हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। पांच व्यवहारों का उल्लेख स्थानांग एवं भगवती सूत्र में भी मिलता है। प्रसंग देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवहार सूत्र से ही यह पाठ स्थानांग एवं भगवती सूत्र में संक्रान्त हुआ है। व्यवहार पंचक का प्रयोग व्यवहार पंचक के प्रयोग के विषय में आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि जहां आगम व्यवहार हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे, जहां आगम न हो वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो वहां आज्ञा से, जहां आज्ञा न हो वहां धारणा से तथा जहां धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। अर्थात् जिस समय जिस व्यवहार की प्रधानता हो, उस समय उस व्यवहार का प्रयोग राग-द्वेष से मुक्त होकर तटस्थ भाव से करना चाहिए। भाष्य में स्पष्ट उल्लेख है कि अनुक्रम से व्यवहार पंचक का प्रयोग विहित है। पश्चानुपूर्वी क्रम से या विपरीत क्रम से व्यवहार का प्रयोग करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। आचार्य मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि जिस समय 'पंचविहे ववहारे पण्णत्ते'....सूत्र की रचना की, उस समय आगम व्यवहार था, फिर उन्होंने श्रुत, आज्ञा आदि व्यवहारों की प्ररूपणा क्यों की? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र का विषय अनागत काल भी होता है। आगमव्यवहारी १.पंकभा 2393 / 4. व्यभा 4551 २.जीभा 560, व्यभा 4431 / को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो निरवसेसिते अत्थे। 3. यहां यह उल्लेख देना आवश्यक है कि भाष्यगत व्यवहार' ववहारो जस्स मुहे, हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं।। शब्द का अर्थ टीकाकार मलयगिरि ने व्यवहारसूत्र किया ५.व्यभा 2 ; ववहारो होति करणभूतो उ। है लेकिन यहां व्यवहार शब्द पांच व्यवहार का वाचक ६.स्था 5/124, भ. 8/301 / होना चाहिए। (जीभा 696, व्यभा 4551) 7. व्यसू 10/6 / ८.व्यभा 3883 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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