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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श * दो व्यक्तियों में विवाद होने पर जो वस्तु जिसकी नहीं है, उससे वह वस्तु लेकर जिसकी वह वस्तु है, उसे देना, यह जो वपन-हरणात्मक व्यापार है, वह व्यवहार कहलाता है। मनुस्मृति की मिताक्षरा टीका में भी व्यवहार शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है। * 'विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं च ववहारो'३ अर्थात् विविध प्रकार से विधिपूर्वक अतिचारहरण हेतु तप, अनुष्ठान आदि का वपन/दान करना व्यवहार है।' * 'जेण य ववहरति मुणी, जं पि य ववहरति सो वि ववहारो' अर्थात् जिसके द्वारा मुनि आगम आदि व्यवहार का प्रयोग करता है, वह व्यवहार है अथवा जिस व्यवहर्त्तव्य का मुनि प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है। •"विविधो वा अवहारः व्यवहार :' अर्थात् विविध प्रकार से अपहार करना व्यवहार है। भाष्य में व्यवहार के चार एकार्थक प्राप्त हैं -1. व्यवहार 2. आलोचना 3. शोधि 4. प्रायश्चित। यद्यपि इनको एकार्थक नहीं माना जा सकता किन्तु व्यवहार विशोधि का कारण है और ये चारों शब्द विशोधि को क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं अतः प्रस्तुत ग्रंथ में व्यवहार शब्द आलोचना, शोधि एवं प्रायश्चित्त–इन तीनों अर्थों में प्रयुक्त है। . भाष्यकार ने भाव व्यवहार के नौ एकार्थकों का उल्लेख किया है-१. सूत्र 2. अर्थ 3. जीत 4. कल्प 5. मार्ग 6. न्याय 7. ईप्सितव्य 8. आचरित 9. व्यवहार। भाष्यकार ने स्वयं यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि ये एकार्थक जीतव्यवहार के सूचक हैं फिर इसके लिए भाव व्यवहार के एकार्थकों का उल्लेख क्यों किया? प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र शब्द से आगम और श्रुत व्यवहार गृहीत हैं। अर्थ शब्द से आज्ञा और धारणा व्यवहार का ग्रहण है। तथा शेष शब्द जीतव्यवहार के द्योतक हैं। व्यवहार के भेद निर्ग्रन्थों एवं संयतों के लिए दो प्रकार के व्यवहारों का उल्लेख है-आभवद् व्यवहार और 1. व्यभा 5, टी पृ.५; यस्य यन्नाभवति, तस्मात् तद् हृत्वा 4. उशांटी प 64; व्यवहारः प्रमादात् स्खलितादौ प्रायश्चित्त आदाय, यस्याभवति तस्मै द्वितीयाय वपति- प्रयच्छति दानरूपमाचरणम् / ........इति व्यवहारः। ५.व्यभा 3888 / 2. मनु मिटी ; 6. बृचू अप्रकाशित। . परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु। 7. व्यभा 1064 / वाक्यान्यायाद्यवस्थानं, व्यवहार उदाहृतः।। ८.व्यभा 7 / ३.व्यभा३। ९.व्यभापी.टी.प.७; द्वावप्यर्थात्मकत्वादर्थग्रहणेन सूचितौ।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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