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________________ 34 जीतकल्प सभाष्य करना) के अर्थ में निर्दिष्ट है। अमर कोश एवं अभिधानचिन्तामणि कोश में व्यवहार शब्द विवाद अर्थ में प्रयुक्त है। आप्टे ने व्यवहार शब्द का अर्थ Administration of Justice किया है। लौकिक दृष्टि में व्यवहार शब्द आचरण के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है। व्यवहार शब्द व्यापार के लिए भी प्रयुक्त होता है। प्राचीन काल में आयात-निर्यात संबंधी व्यापक व्यापार के लिए व्यवहार शब्द का प्रयोग होता था तथा स्थानीय क्रय-विक्रय के लिए पण शब्द प्रयोग होता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्यवहार शब्द न्याय के अर्थ में प्रयुक्त है। याज्ञवल्क्य स्मृति के दूसरे अध्याय का नाम ही व्यवहार है, जिसमें दण्डसंहिता का वर्णन है। उसके अनुसार स्मृति और आचार के प्रतिकूल मार्ग से दूसरे के द्वारा पीड़ित होने पर राजा को निवेदन करना व्यवहार है। आवश्यक हारिभद्रीय टीका में भी व्यवहार शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है। विशेषावश्यक भाष्य में नय के प्रसंग में व्यवहार शब्द के निम्न अर्थों का उल्लेख है-१. प्रवृत्ति 2. प्रवृत्तिकर्ता 3. जिससे सामान्य का निराकरण किया जाए 4. सामान्य लोगों द्वारा आचरित 5. सब द्रव्यों के अर्थ का विनिश्चय।' आचार्य मलयगिरि ने व्यवहार के तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है, जिससे व्यवहार शब्द का अर्थ आचार फलित होता है। व्यवहार शब्द भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दशवैकालिक नियुक्ति में आक्षेपणी कथा के चार भेदों में दूसरी कथा का नाम व्यवहार आक्षेपणी है। सत्य के दस भेदों में एक नाम व्यवहार सत्य है। राशि के दो प्रकारों में एक नाम व्यवहार राशि है। गणित के दस भेदों में एक भेद व्यवहार है, जिसे पाटी गणित भी कहते हैं।२ समयसार में नय की प्ररूपणा में व्यवहार शब्द का अर्थ अभूतार्थ-अयथार्थ किया है।३।। ___ कात्यायन ने व्यवहार शब्द के तीन घटकों का निरुक्तपरक अर्थ इस प्रकार किया है-वि+अव हार अर्थात् जो नाना प्रकार से संदेहों का हरण करता है, वह व्यवहार है। प्राकृत में वव+हार-इन दो शब्दों से व्यवहार शब्द की निष्पत्ति मानी गयी है। व्याख्याकारों ने अनेक रूपों में व्यवहार शब्द को व्याख्यायित किया है १.शुक्र 4/5/64 / 10. अभयदेवसूरि के अनुसार जिसमें व्यवहार प्रायश्चित्त का 2. अमर 1/6/9 / निरूपण हो, वह व्यवहार आक्षेपणी है। (देखे स्था 3. अभिधान 2/176 / 4/247 टी प.२००), यहां कुछ आचार्यों ने व्यवहार 4. सू 1/3/25 ; हिरण्णं ववहाराइ, तं पि दाहामु ते वयं। शब्द को ग्रंथ विशेष का द्योतक भी माना है। (देखें 5. याज्ञ 2/5 / स्था 4/247 टी. प. 200) 6. आवहाटी 1 पृ.८६। ११.स्था 10/89 / 7. विभा 2212, महेटी पृ. 453 / १२.स्था 10/100 / 8. व्यभा 153 मटी. प.५१; कल्पो व्यवहार आचार इत्यन- 13. समयसार 13 / र्थान्तरम्। 14. कात्या स्मृति; वि नानार्थेऽव संदेहे, हरणं हार उच्यते। 9. दशनि 167 / नानासंदेहहरणाद्, व्यवहार इति स्थितिः।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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