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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 33 पिण्डनियुक्ति और निशीथ भाष्य से प्रभावित होकर उसके आधार पर यह सारा वर्णन किया है। कुछ दोषों के प्रायश्चित्तों का वर्णन निशीथ और बृहत्कल्प भाष्य में विकीर्ण रूप से मिलता है लेकिन भाष्यकार ने सुसम्बद्ध तरीके से भिक्षाचर्या के दोष एवं उनके भेद-प्रभेदों के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट कर दिए हैं। उन्होंने दोषों के क्रम से प्रायश्चित्त का निरूपण नहीं करके तप प्रायश्चित्त के आधार पर दोष और उनके प्रायश्चित्तों का निर्देश किया है, जैसे उपवास प्रायश्चित्त से सम्बन्धित जितने दोष हैं, उनका एक ही स्थान पर समाहार कर दिया है। छह कल्पस्थिति, दशकल्प तथा अंतिम दो प्रायश्चित्त-अनवस्थाप्य और पारांचित आदि विषयों से सम्बन्धित गाथाएं बृहत्कल्पभाष्य और निशीथभाष्य तथा कुछ विषय व्यवहारभाष्य से भी समुद्धृत हैं, यह कहा जा सकता है। परवर्ती अन्य ग्रंथों पर प्रभाव प्राचीन साहित्य की एक विशेषता रही है कि लेखक किसी भी ग्रंथ के किसी अंश को बिना किसी नामोल्लेख के अपने ग्रंथ का अंग बना लेते थे। यह उस समय साहित्यिक चोरी नहीं मानी जाती थी। अनेक ग्रंथों के समान अंशों को देखकर आज यह निर्णय करना कठिन होता है कि कौन किससे प्रभावित है? जीतकल्प एवं उसके भाष्य से परवर्ती अनेक ग्रंथ प्रभावित हुए हैं। .. दिगम्बर ग्रंथ छेदपिण्ड और छेदसूत्र आदि ग्रंथ निशीथ, व्यवहार एवं जीतकल्प आदि ग्रंथों से प्रभावित होकर लिखे गए हैं। छेदपिण्ड में स्पष्ट उल्लेख है कि ये दशविध प्रायश्चित्त जो कल्प और व्यवहार में वर्णित हैं तथा जीतकल्प में जो पुरुषभेद के आधार पर प्रायश्चित्त देने का विधान है, उसी आधार पर यह वर्णन किया गया है। सोमप्रभसूरि ने यतिजीतकल्प तथा आचार्य मेरुतुंग ने जीतकल्पसार ग्रंथ जीतकल्प के आधार पर लिखा है, ऐसा विद्वानों का मंतव्य है। - इस भूमिका में मारणान्तिक संलेखना, अनशन, आचार्य की गणि-सम्पदा, समिति-गुप्ति, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, छह कल्प स्थिति में जिनकल्प, स्थविरकल्प, निर्विशमानक, निविष्टकायिक (परिहार विशुद्धि तप) आदि विषयों के बारे में विस्तार से लिखना था लेकिन ग्रंथ का आकार बृहद् होने से इन विषयों पर प्रकाश नहीं डाला जा सका। फिर भी पांच व्यवहार, प्रतिसेवना और दश प्रायश्चित्त के बारे में विस्तार से लिखा जा रहा है। व्यवहार - व्यवहार शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है। शुक्रनीतिसार में व्यवहार शब्द विवाद (मुकदमा 1. छेदपिण्ड 288; 2. बृहहिदीकोश पृ. 1098, शब्दकल्पद्रुम भाग 4 एवं दसविधपायच्छित्तं, भणियं तु कप्प-ववहारे। पृ. 534-43 / जीदम्मि पुरिसभेदं, णाउं दायव्वमिदि भणियं / /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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