SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 346 जीतकल्प सभाष्य 755. अपूर्व आचार्य अथवा अतीव संविग्न साधु को वंदन करने अथवा संशय-निवारण हेतु गच्छ से दूर : या पास निर्गमन होता है। 756. 'आदि' शब्द के ग्रहण से श्रद्धालु ज्ञातिजन अथवा अवसन्न विहारी को श्रद्धा ग्रहण कराने हेतु अथवा साधर्मिक साधु को संयम में उत्साहित करने के लिए गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। 757. इन प्रयोजनों से साधु को गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। छठी गाथा समाप्त हो गई, अब मैं सातवीं गाथा कहूंगा। 7. साधु उपाश्रय से सौ हाथ दूर जो कुछ करता है, उसकी आलोचना न करने पर अशुद्ध तथा आलोचना करते हुए शुद्ध होता है। 758. गाथा (7) में जो ‘जं चऽण्णं करणिज्ज' कहा गया है, वह क्षेत्र आदि से सम्बन्धित है। मैं सौ हाथ के भीतर अथवा उससे दूर जाने के कारणों को कहूंगा। 759, 760. क्षेत्र-प्रतिलेखना, स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना, शैक्ष का अभिनिष्क्रमण अथवा कोई आचार्य आदि संलेखना करे-इन कारणों से सौ हाथ से दूर जाने पर जो आचरण किया जाता है, उसमें समिति की विशुद्धि के लिए अवश्य आलोचना करनी चाहिए। 761, 762. यदि सौ हाथ के भीतर कुछ आसेवना की हो तो कुछ की आलोचना की जाती है, कुछ की नहीं की जाती, जैसे—प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मल आदि में उपयुक्त होने पर आलोचना नहीं होती। प्रमत्त साधु आलोचना करने पर शुद्ध होता है, आलोचना न करने पर अशुद्ध रहता है। 763. सातवीं गाथा की व्याख्या समाप्त हो गई, अब मैं आठवीं गाथा की व्याख्या करूंगा। जहां स्वगण और परगण से कारणपूर्वक निर्गमन और आगमन होता है। 8. स्वगण से सकारण निर्गमन करने वाले तथा परगण से आने वाले निरतिचार साधु के उपसम्पदा और विहार में आलोचना करने से शुद्धि होती है। 764. गच्छ से निर्गमन सकारण और अकारण-इन दो हेतुओं से होता है। अशिव आदि होने पर सकारण तथा चक्र और स्तूप आदि देखने के लिए होने वाला निर्गमन अकारण कहलाता है। 765. समाधि की इच्छा रखने वाले साधु को इन कारणों से निर्गमन करना चाहिए-१. अशिव 2. अवमौदर्य 3. राजा का प्रद्वेष 4. भय 5. रोग 6. तथा उत्तमार्थ (अनशन)। 766. आचार्य के द्वारा प्रेषित करने पर गच्छ से होने वाला निर्गमन सकारण कहलाता है। मैं निष्कारण
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy