________________ अनुवाद-जी-८ 347 निर्गमन' के कारणों को कहूंगा। 767, 768. असमाप्त कल्प वाले साधु का इन कारणों से होने वाला निर्गमन अकारण है-चक्रधर्मचक्र', स्तूप तथा जीवन्त स्वामी की प्रतिमा का दर्शन', तीर्थंकरों की जन्मभूमि, निष्क्रमणभूमि, केवलज्ञानभूमि तथा निर्वाणभूमि को देखने, महिमा, समवसरण, ज्ञातिजनों का स्थान, गोकुल आदि स्थानइन स्थानों में यतनायुक्त गीतार्थ मुनि का निर्गमन अकारण होता है।" 769. कारण से निर्गमन करने पर निरतिचार साधुओं को भी समिति की विशुद्धि के लिए अवश्य आलोचना देनी चाहिए। 770. आलोचना दो प्रकार की होती है-ओघतः और विभागतः। संक्षिप्त आलोचना को ओघ तथा विस्तृत आलोचना को विभाग आलोचना कहा गया है। 771, 772. ओघ आलोचना इस प्रकार है-कोई मुनि पन्द्रह दिन के भीतर कहीं से आया है, वह ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करके भोजन-वेला में आलोचना करता है। निरतिचार यति यदि भक्तार्थी है तो वह संक्षेप में आलोचना करके भोजन-मंडलि में प्रवेश करे। 773. मूलगुण और उत्तरगुण की अल्प विराधना होने पर तथा पार्श्वस्थ साधु आदि को देने और लेने में अल्प विराधना होने पर ओघ आलोचना होती है। 774. अर्धमास से अधिक समय से आने पर भोजन-वेला के अतिरिक्त अन्य समय में समिति की विशुद्धि के लिए विभाग आलोचना होती है। परगण से आया हुआ साधु भी इसी प्रकार आलोचना करता है। १.निशीथ भाष्य में निष्कारण गमन के निम्न हेतु बताए हैं–१. अमुक आचार्य विशिष्ट चारित्र सम्पन्न, श्रुतविशारद या शिष्य-परिवार से युक्त हैं, उनके दर्शन हेतु जाना। 2. अमुक साधु निरतिचार चारित्र वाला तथा ज्ञान आदि गुणों से युक्त है, उसके दर्शनार्थ जाना। 3 अपूर्व या अभिनव चैत्य के वंदन हेतु जाना। 4. आत्मीय या श्रावक लोगों को दर्शन दूंगा, . . उनको आध्यात्मिक सहयोग दूंगा और मुझे भी विशिष्ट आहार आदि की प्राप्ति होगी। 5. नए-नए क्षेत्र देखने को मिलेंगे। 6. गोकुल में जाने से दूध आदि मिलेगा। ये सभी निष्कारण गमन के हेतु है। वहां निष्कारण विहार से होने वाले मार्गश्रम आदि अनेक दोषों की चर्चा भी है। १.निभा 1055-60 चू पृ. 113 / २.जीतकल्पचूर्णि की विषम पद व्याख्या में तक्षशिला नगरी में बाहुबलि द्वारा निर्मित रत्नमय धर्मचक्र का उल्लेख मिलता है। यह बात तर्क संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि इतना समय बीतने के पश्चात् मानव निर्मित वस्तु का - अस्तित्व संभव नहीं लगता। ... १.जीचूवि पृ.४०; चक्कथूभत्ति-ऋषभजिनपदस्थाने बाहुबलिविनिर्मितं तक्षशिलानगर्यां रत्नमयधर्मचक्रं तद्दर्शनाय व्रजति। 3. धर्मचक्र बनारस में, स्तूप मथुरा में, जीवन्त स्वामी की प्रतिमा पुरिका (पुरी) में है। १.जीचूवि पृ. 40 ; स्तूपो मथुरायाम्। प्रतिमा जीवन्तस्वामिसम्बन्धिनी पुरिकायाम्। 4. ओघनियुक्ति में निष्कारण-गमन के ये हेतु और बताए हैं-१.संखडि-भोज के लिए निर्गमन 2. विहार-उस स्थान में मन नहीं लगने से होने वाला निर्गमन ३.जिस देश में स्वभावतः आहार मिलता हो, वहां निर्गमन 4. अमुक देश में उपधि अच्छी मिलती है, उसके लिए गमन 5. दर्शनीय स्थल को देखने के लिए निर्गमन / ' 1. ओनि 119 टी. प.६०।