________________ 348 जीतकल्प सभाष्य 775. इस प्रकार अशिव आदि कारण होने पर स्वगण से निर्गत निरतिचार साधु की आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। 776. जो साधु बाहर से आते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं-समनोज्ञ और असमनोज्ञ / समनोज्ञ अपने गच्छ से ही आते हैं। 777. दूसरे गण में जो असमनोज्ञ साधु होते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं -संविग्न और असंविग्न / पार्श्वस्थ आदि असंविग्न होते हैं। 778. दूसरे गण से जो संविग्न साधु अन्य गण में आता है, उसे अवश्य ही विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 779. उपसंपदा' पांच प्रकार की होती है -1. श्रुत 2. सुख-दुःख 3. क्षेत्र 4. मार्ग 5. विनय। 780. जहां नियमत: पांच प्रकार की या एक प्रकार की उपसम्पदा स्वीकार की जाती है, वहां निरतिचार होने पर भी अवश्य विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 781,782. जो एक गच्छ में हैं, समनुज्ञ हैं, वे एक सांभोजिक, स्पर्धकपति और गीतार्थ साधु उस अथवा अन्य क्षेत्र में विहरण करते हैं, वे यदि एक दिन, पांच दिन, पक्ष या चातुर्मास में जहां भी आपस में मिलते हैं, वहां विभागतः आलोचना देनी चाहिए। 783. आलोचनाह का प्रथम द्वार मैंने कहा, अब मैं प्रतिक्रमणार्ह नामक दूसरा द्वार कहूंगा। 9. गुप्ति और समिति में प्रमाद, गुरु की आशातना, विनय का भंग, इच्छाकार आदि सामाचारी न करना तथा लघुस्वक मृषा, अदत्त और मूर्छा करने पर (प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है।) १.जीतकल्प भाष्य में श्रुत, सुख-दु:ख आदि को पांच उपसम्पदा के रूप में स्वीकार किया है। व्यवहारभाष्य में ये पांच प्रकार के आभवद् व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हैं लेकिन शाब्दिक भेद होते हुए भी दोनों में अर्थभेद नहीं है। पांचों उपसम्पदाओं की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है• श्रुत ग्रहण करने के लिए अन्य आचार्य के पास उपसम्पदा स्वीकार करना श्रुत-उपसम्पदा है। यह दो प्रकार की होती है-अभिधारण और पठन / इनके भी दो-दो भेद हैं -अनंतर और परम्पर। दो साधुओं के मध्य होने वाली अनंतर श्रुतोपसंपद् तथा तीन आदि के मध्य होने वाली परम्पर श्रुतोपसम्पद् कहलाती है। इसके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3958-80 * सुख-दुःख सम्यक् रूप से सहन करना सुख-दुःख उपसम्पदा है। इसके भी दो भेद है-अभिधारण और उपसम्पन्न / इनके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3981-92 / * आठ ऋतुमास और चार वर्षाकाल के लिए क्षेत्र की मार्गणा करना क्षेत्र उपसम्पदा है। इसके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3993-99 / * क्षेत्र में रहते हुए या मार्ग में जाते हुए यह क्षेत्र किसका है, यह निर्णय करना क्षेत्रोपसम्पदा है। वसति में रहने वाले और आगन्तुक मुनियों के विनय-व्यवहार को प्रकट करने वाली विनय उपसम्पदा कहलाती है। विस्तार हेतु देखें व्यभा 4000-05 /