________________ अनुवाद-जी-९ 349 784. 'गुपू' धातु रक्षण अर्थ में है, उससे गुप्ति' शब्द निष्पन्न हुआ है। वह मन आदि तीन प्रकार की होती है। उसमें साधु जो कुछ भी प्रमाद करता है, वह इस प्रकार है७८५. दुश्चिन्तन, दुर्भाषण और दुश्चेष्टा-यह अगुप्ति होती है। साधु के मन आदि से सम्बन्धित यह प्रमाद होता है। 786. साधु मन आदि से नित्य गुप्त कैसे रह सकता है? यहां जिनदास आदि के उदाहरण कहूंगा। 787. मन गुप्ति में जिनदास श्रावक का उदाहरण है। जिनदास श्रेष्ठिपुत्र और श्रावक था। उसने यानशाला में सर्वरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। 788, 789. उसकी भार्या उद्भामिका-स्वैरिणी थी। वह उसी यानशाला में कील युक्त पलंग लेकर आई। (अंधेरे में दिखाई न देने के कारण) वह जिनदास के पैर के ऊपर मंचक के पाए को स्थिर करके (अपने उपपति के साथ) अनाचार का सेवन करने लगी। पर्यंक की कीलिका से जिनदास का पैर बिंध गया। महान् वेदना होने पर भी उसने उसको समभाव से सहन किया। 790. उस निश्चलमति जिनदास के मन में पत्नी को देखकर भी दुश्चिन्तन उत्पन्न नहीं हुआ। इस प्रकार की मनगुप्ति का अभ्यास करना चाहिए। 791. वचनगुप्ति में एक साधु का उदाहरण है, जो ज्ञातिजनों की पल्लि में उन्हें देखने गया। चोरों ने उसे पकड़ लिया पर सेनापति ने उसे यह कहकर छोड़ दिया कि इस बारे में किसी से कुछ मत कहना। 792. यज्ञयात्रा प्रस्थित हुई। साधु को उसके ज्ञातिजन मार्ग के बीच में ही मिल गए। वह साधु भी माता, पिता और भाई के साथ लौट आया। 793-95. चोरों ने उन्हें पकड़ लिया और धन चुरा लिया। चोरों ने जब साधु को देखा तो कहा कि यह वही साधु है, जो हमारे द्वारा छोड़ा गया था। यह सुनकर उसकी मां ने कहा-'क्या यह तुम्हारे द्वारा पकड़कर छोड़ा गया है?' चोरों ने कहा-'हां, यह वही साधु है।' मां बोली कि छुरी लेकर आओ, मैं अपने स्तन काटती हूं। सेनापति ने पूछा-'स्तन क्यों काटना चाहती हो?' मां ने कहा-'यह कुपुत्र है, इसने चोरों को देखा फिर भी हमें कुछ नहीं कहा, यह मेरा पुत्र कैसे हुआ?' जब साधु से पूछा कि तुमने चोरों के बारे में क्यों नहीं कहा तो मुनि ने धर्म-कथा कही। 1. उत्तराध्ययन के अनुसार अशुभ विषयों से निवृत्त होना गुप्ति है। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना तथा उन्मार्ग से निवृत्त होना गुप्ति है। उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में त्रिविध गुप्ति के लाभों का वर्णन मिलता है।' | १.उ२४/२६ ; गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो।। 2. उशांटी प५१४ ; प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननिवारणं गुप्तिः। .3. उ 29/54-56 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 20 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 21 /